कितनी देर और,
भला कितनी देर और
लिखी जा सकती है इस तरह
इक तरफ़ा
प्रेम या विरह की कवितायें
हालांकि यह किसी शक या शिकवा करने जैसा है
और इसलिए मैं अभी तक बचता रहा हूँ यह कहने से
कि मुझे नहीं मालुम
तुम्हारी रातों में दरारें पड़ती हैं या नहीं
और अगर हाँ तो क्या वहां से कुछ रिसता भी है
जाने क्यूँ आज ये जरूरी सा लग रहा है
कि तुम्हारी भी रातों में दरारें हों
खास कर
जब मैं रिस रहा होऊं यहाँ अकेला
तुम भी बार-बार चिहुंक कर उठो नींद से
जब मेरी जीभ सूखे
मुझे आज क्यूँ ये लग रहा है कि
उस नीम के पेंड के सूखते तने में
कील से ठोक कर चली गयी मुझे तुम
और मैं रिस रहा हूँ वहां से लगातार कवितायें,
और तुम्हारी रातों में
इक दरार तक नहीं
जाने क्यूँ आज ये प्यार छोटा पड़ रहा है
जबकि मैं थोड़ी देर और लिखते रहना चाहता हूँ
प्रेम और विरह की कवितायेँ
इसी तरह
यह जानते हुए भी कि
तुम्हारी रातें हैं अक्षत...अविघ्न..
26 comments:
# भारतीय नववर्ष 2067 , युगाब्द 5112 व पावन नवरात्रि की शुभकामनाएं
# रत्नेश त्रिपाठी
जाने क्यूँ आज ये जरूरी सा लग रहा है
कि तुम्हारी भी रातों में दरारें हों
खास कर
जब मैं रिस रहा होऊं यहाँ अकेला
तुम भी बार-बार चिहुंक कर उठो नींद से
जब मेरी जीभ सूखे
बहुत-बहुत सुन्दर.
पता नहीं कैसा दर्द समाया हुआ है उस कवि के मन में, जो उन दरारों से रिसता रहता है । बहुत ही अच्छी रचना । आभार
गुलमोहर का फूल
जब दर्द रिसने लगता है तो गहराई कि अंदाजा होता है ...
Rachana mere shabdon ke pare hai!
Bahut,bahut sundar alfaaz!
बढ़िया है भई ओम ।
जाने क्यूँ आज ये जरूरी सा लग रहा है
कि तुम्हारी भी रातों में दरारें हों
खास कर
जब मैं रिस रहा होऊं यहाँ अकेला
तुम भी बार-बार चिहुंक कर उठो नींद से
जब मेरी जीभ सूखे
Waah! bahut lajawab hai aapki yah rachana....dhanywaad.
ब्लॉग्गिंग में कुछ लोग हैं जो कीबोर्ड से भावनाएं उडेलना जानते हैं... आप भी उन गिने-चुने लोगों में से हैं.
सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति..बहुत खूब!
कितनी देर और
भला कितनी देर और
लिखी जा सकती है इस तरह
इक तरफ़ा
प्रेम या विरह की कवितायें
प्रेम या विरह है तभी तो लिखा जायेगा
वर्ना तो फिर इंसा भीड़ में गुम जायेगा
बहुत उम्दा और त्रासद पीड़ा का सच्चा तथा अनोखा बयान ओम भाई !
साधुवाद !
सप्रीत--आ.
bahut hee badhiya OM bhai...
मैंने बहुत दिनों बाद दर्द भरी ऐसी कविता पढ़ी और शिद्दत से इसे महसूस भी किया... सिहर भी उठा.
बहुत ही बढिया भाव लिए रचना. बहुत अच्छा ओम जी.
जाने क्यूँ आज ये जरूरी सा लग रहा है
कि तुम्हारी भी रातों में दरारें हों
खास कर
जब मैं रिस रहा होऊं यहाँ अकेला.......
--जब गहरी चोट लगती है तब यही आह निकलती है...
कितना भावपूर्ण लिखा है...
कुछ इस गीत की तरह--मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे...
प्रेम का एक रूप यह भी है...बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति हमेंशा की तरह
sunder rachana om ji.
badhai.
virah to prem ka shringaar hai ..........bahut hi dardbhari virahvyatha ka chitran kiya hai.
बड़ी गहरी संवेदना है भई.......आप को इस रचना के लिये बहुत बहुत बधाई....
संवेदना से भरी-पूरी कविता ! अभिषेक भाई की बात से पूर्णतया सहमत !
सुखती पिघलती रही थी
रात कही
वक्त के तपिश मे
प्रकृति ने जो
थोडी समेट ली है
जीवनदायनी चीजे !
रातों मे दरारें!!नयी कल्पना लगी एकदम..और सोचने लायक..अगर यह रात के दीवार है दो वजूदों के बीच..तो दीवार के एक ओर की हलचलें रात के दूसरी ओर भी दरारें पैदा कर सकती हैं..और यह खुद का रिसना खुद से ही कुछ हलके हो जाना भी हो जाता है..मगर नीम के पेड़ के कलेजे मे ठुकी कील से रिसना बस नीम के घावों के आँसुओं की ही कहानी है...और क्या कविता भी ऐसे ही नही रिसती रहेगी..
जबकि मैं थोड़ी देर और लिखते रहना चाहता हूँ
प्रेम और विरह की कवितायेँ
इसी तरह
साहिर याद आये..
पूछ कर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों के मुकद्दर मे सहर है कि नही
एक बड़ी सम्वेदनशील कविता...
bahut khubsurat likha hai
dard ki chadar lapete so raha hai aadmi...........ankh me aansu nahi par ro raha hai aadmi!!!
apki rachna me dard bahot achhce se ris raha hai
ओम आर्य...बहुत खूब लिखा है।
जानती हूँ कविता रिसती रहेगी..
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