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Saturday, March 26, 2011
कुछ किया जाए कि कविता को सहारा हो
समझा जाए किसी कविता को ठीक कविता हीं की तरह, कोई भी कविता इससे ज्यादा और क्या चाहेगी और कवि को भी इससे ज्यादा और कुछ नहीं चाहना चाहिए। मौन में उसके उतर कर, कान लगा कर सुनी जाए उसकी आवाज। वो कहे रोने को तो जरूर रोया जाए, उसका तड़पना महसूस किया जाए और जरूरत हो तो तड़पा जाये साथ उसके। कुछ किया जाए कि कविता को सहारा हो। कविता में अगर आग है, तो आप कहीं से भी हो, आग जरूर लायें और तपायें अपनी आग को कविता की आग में। कविता को झूठ न समझा जाए, न हीं उसे जोड़ कर देखा जाए कवि के शब्दों से। कविता के अपने शब्द होते हैं, नितांत अपने और अगर आप उन्हें जला भी दें तो आवाजें आयेंगीं। दरअसल कविता का लिख दिया जाना कवि द्वारा हार स्वीकार कर लिया जाना है कि अब कविता के बारे में उससे कुछ नहीं किया जा सकेगा और तब जिम्मेवारी आपकी बनती है
Tuesday, March 30, 2010
आवाज की हमने कभी नही सुनी !
सुबह-सुबह इक ख्वाब गिर गया है आँख से
नींद काँप उठी थी शोर से
आवाज,
जिसकी अन्तिम स्थिति मौन होनी चाहिए थी
संगीत से निकल कर
शोर हो चुकी है
हमारे समानांतर
परन्तु तेज बढ़ते हुए
यह हिला देगी
एक दिन इस पूरी कायनात को
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
सुनने के सम्बन्ध में कुछ भी हो सकता है
जिसके बारे में अभी से तय करना
मामले को कम गंभीरता से लेना है
गलती हमारी है
हमने कभी
ये जानने की कोशिश नही की
कि दिनानुदिन बढती हुई चीखों में
वह चीख-चीख कर क्या कह रही है
आवाज की हमने कभी नही सुनी !!
नींद काँप उठी थी शोर से
आवाज,
जिसकी अन्तिम स्थिति मौन होनी चाहिए थी
संगीत से निकल कर
शोर हो चुकी है
हमारे समानांतर
परन्तु तेज बढ़ते हुए
यह हिला देगी
एक दिन इस पूरी कायनात को
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
सुनने के सम्बन्ध में कुछ भी हो सकता है
जिसके बारे में अभी से तय करना
मामले को कम गंभीरता से लेना है
गलती हमारी है
हमने कभी
ये जानने की कोशिश नही की
कि दिनानुदिन बढती हुई चीखों में
वह चीख-चीख कर क्या कह रही है
आवाज की हमने कभी नही सुनी !!
Wednesday, October 7, 2009
हालांकि मैने छोड़ दिए हैं देखने वे ख्वाब !!!
हालांकि, मैने छोड़ दिए हैं
देखने वे ख्वाब
और जिक्र करना भी...
पर, मेरे कंधे पर
अभी भी आ झुकता है चेहरा तेरा
और मेरे सीने को
जब तब घेर लेती हैं बाजुएं तुम्हारी
ख़ास कर तब, जब हम
टहलते हुए निकल जाते हैं साहिल तकaa
और बैठ जाते हैं रेत पर
मेरी कनपटियो कों रगड़ती हुई
जब उलझ जाती हैं तुम्हारी अलाव सी साँसे
मेरी बाली से,
आँखें गर्म मिलती हैं सुबह
और यूँ लगता है
कि नींद किसी उबलते ख्वाब से गुजरी होगी
अभी भी खुल जाती हैं तुम्हारी सलवटें
जहाँ पनाह भरा है
और वो मौन राते, जहाँ लब्जों के सिवाए
सब कुछ होता है.
अभी भी कभी-कभी जगता हूँ जब
तो पाता हूँ सुबह अपने होंठों पे
तेरे होंठों के जायके कों चिपके हुए
हालांकि मैने छोड़ दिए हैं देखने वे ख्वाब
फिर भी...
जिक्र तो हो ही जाता है !!!
देखने वे ख्वाब
और जिक्र करना भी...
पर, मेरे कंधे पर
अभी भी आ झुकता है चेहरा तेरा
और मेरे सीने को
जब तब घेर लेती हैं बाजुएं तुम्हारी
ख़ास कर तब, जब हम
टहलते हुए निकल जाते हैं साहिल तकaa
और बैठ जाते हैं रेत पर
मेरी कनपटियो कों रगड़ती हुई
जब उलझ जाती हैं तुम्हारी अलाव सी साँसे
मेरी बाली से,
आँखें गर्म मिलती हैं सुबह
और यूँ लगता है
कि नींद किसी उबलते ख्वाब से गुजरी होगी
अभी भी खुल जाती हैं तुम्हारी सलवटें
जहाँ पनाह भरा है
और वो मौन राते, जहाँ लब्जों के सिवाए
सब कुछ होता है.
अभी भी कभी-कभी जगता हूँ जब
तो पाता हूँ सुबह अपने होंठों पे
तेरे होंठों के जायके कों चिपके हुए
हालांकि मैने छोड़ दिए हैं देखने वे ख्वाब
फिर भी...
जिक्र तो हो ही जाता है !!!
Wednesday, May 20, 2009
ताजे मौन देना
ये बातें
जिनका अस्तित्व मौन में हैये बातें किसी दायरे में नहीं
उनके सपने हैं निराकारये बातें फ़िज़ा में भटकती रहती है
कभी वक़्त मिले तो छू
कर इन्हे थोड़े ताज़े मौन दे देना।
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