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Wednesday, March 16, 2011
गन्दा समय और गालियाँ
समय बहुत गन्दा हो गया था और उसे साफ़ करने में न जनता हाथ लगाती थी और न सरकार मोहल्ले में सफाई वाले का इन्तिज़ार रहता था पर वो अक्सर नहीं आता था उसका कहना था कि यहाँ गन्दगी अधिक होती थी देश का भी कुछ ऐसा हीं हाल था सफाई वाला जाने किसे अनाप शनाप गालियाँ बकता था और इंतज़ार में रहता था कि किसी रात किसी के घर आयकर का छापा पड़े और उसकी सुबह कूड़ेदान में उसे नोटों से भरा थैला मिल जाए वो भी जनता की तरह का आदमी था गालियाँ देना उसे अच्छा लगता था समय और सरकार को गालियाँ देते हुए उसे जितनी भी नींद आती थी उससे वो गुजारा कर लेता था और सुबह उठ कर फिर गालियाँ देने लगता था सभाओं में जनतंत्र की परिभाषा अक्सर दुहराई जाती थी पर न जनता मानती थी और न हीं सरकार कि वे एक हैं वे मानते थे कि वे अलग-अलग हैं और प्रत्येक ये मानता था कि दूसरा गंदगी फैलाता है संसद का ये काम था कि वो हंगामे करे मीडिया का काम था वे उन्हें गालियों में शिक्षित करें और जनता ये मान बैठी थी कि बिना हंगामे और गालियों के सरकारें नहीं चलतीं सरकार जन-जन तक ये सन्देश पहुंचा देती थी कि शिक्षा, स्वस्थ्य, सफाई, सड़क, रोजगार और इस तरह की तमाम चीजें वो मुहैया कराएगी जनता मान कर हाथ पे हाथ धर कर बैठ जाती थी पर मुंह खुले रहते थे और गालियाँ निकालना जारी रहता था कवि को भी समय समय पे अच्छी कविताओं की जरूरत रहती थी नहीं तो उसमें और बिना कवि के आदमी में कोई फर्क नहीं रह जाता था उसकी कविताओं में गालियाँ भरने लगती थी और समय ज्यादा गन्दा हो जाता था
Friday, August 20, 2010
अब और बंजर होने की जगह नहीं हो
वे टूटें
भूकंप के मकानों की तरह
और फटें
बादलों की तरह
हम कहीं दूर सूखे में बैठ कर
देखें उनका टूटना और फटना
लिखे उनके दुख और खुश होवें
टूट पड़ें सड़क पे
लाल बत्ती के हरी होते हीं
और बाजू में
बच कर निकलने के लिए संघर्ष करते
साइकिल वाले की साँसों का
उथल-पुथल देखते हुए
पार कर जाएँ सफ़र
रात की तेज बारिश में
बह गयी हों सारी यादें
तब भी सुबह उठ कर हम टाल जाएँ
खुद से बातें करना
और समय पे पहुँच जाएँ दफ्तर
दाल सौ रुपये किलो जाए
तो उसके साथ हम बेंच दे
अपनी मासूमियत
वो जलाएं हमें
और हम खींचें कश
मनहूस वक्त के छल्ले हर तरफ घूमते हों
अब और बंजर होने की जगह नहीं हो
और हमारा क्या
हमारे दिमागों में पतझड़ का मौसम हो
और वहां पहुँचने वाली नसें सूखी.
____
भूकंप के मकानों की तरह
और फटें
बादलों की तरह
हम कहीं दूर सूखे में बैठ कर
देखें उनका टूटना और फटना
लिखे उनके दुख और खुश होवें
टूट पड़ें सड़क पे
लाल बत्ती के हरी होते हीं
और बाजू में
बच कर निकलने के लिए संघर्ष करते
साइकिल वाले की साँसों का
उथल-पुथल देखते हुए
पार कर जाएँ सफ़र
रात की तेज बारिश में
बह गयी हों सारी यादें
तब भी सुबह उठ कर हम टाल जाएँ
खुद से बातें करना
और समय पे पहुँच जाएँ दफ्तर
दाल सौ रुपये किलो जाए
तो उसके साथ हम बेंच दे
अपनी मासूमियत
वो जलाएं हमें
और हम खींचें कश
मनहूस वक्त के छल्ले हर तरफ घूमते हों
अब और बंजर होने की जगह नहीं हो
और हमारा क्या
हमारे दिमागों में पतझड़ का मौसम हो
और वहां पहुँचने वाली नसें सूखी.
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Tuesday, March 30, 2010
आवाज की हमने कभी नही सुनी !
सुबह-सुबह इक ख्वाब गिर गया है आँख से
नींद काँप उठी थी शोर से
आवाज,
जिसकी अन्तिम स्थिति मौन होनी चाहिए थी
संगीत से निकल कर
शोर हो चुकी है
हमारे समानांतर
परन्तु तेज बढ़ते हुए
यह हिला देगी
एक दिन इस पूरी कायनात को
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
सुनने के सम्बन्ध में कुछ भी हो सकता है
जिसके बारे में अभी से तय करना
मामले को कम गंभीरता से लेना है
गलती हमारी है
हमने कभी
ये जानने की कोशिश नही की
कि दिनानुदिन बढती हुई चीखों में
वह चीख-चीख कर क्या कह रही है
आवाज की हमने कभी नही सुनी !!
नींद काँप उठी थी शोर से
आवाज,
जिसकी अन्तिम स्थिति मौन होनी चाहिए थी
संगीत से निकल कर
शोर हो चुकी है
हमारे समानांतर
परन्तु तेज बढ़ते हुए
यह हिला देगी
एक दिन इस पूरी कायनात को
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
सुनने के सम्बन्ध में कुछ भी हो सकता है
जिसके बारे में अभी से तय करना
मामले को कम गंभीरता से लेना है
गलती हमारी है
हमने कभी
ये जानने की कोशिश नही की
कि दिनानुदिन बढती हुई चीखों में
वह चीख-चीख कर क्या कह रही है
आवाज की हमने कभी नही सुनी !!
Wednesday, September 23, 2009
सुबह तक तो हौसले में ले जरा !
मैं नींद को तेरे से लू चुरा
अपनी नजर में मुझे तू ले जरा
मैं तेरा हूँ, ये मुझे यकीन हैं
तू इसे अपनी यकीन में ले जरा
रात है घनी और तन्हाई टूटी हुई
सुबह तक तो हौसले में ले जरा
बुझने लगी है लपट जिंदगी की
अपने आग में उसे तो ले जरा
बदन में उग रहा है तू कहीं
अपनी आहटें आ के सुन ले जरा
कुछ लब्ज भटकते हैं बे-आवाज
तू अपने सुर में उसे तो ले जरा
अपनी नजर में मुझे तू ले जरा
मैं तेरा हूँ, ये मुझे यकीन हैं
तू इसे अपनी यकीन में ले जरा
रात है घनी और तन्हाई टूटी हुई
सुबह तक तो हौसले में ले जरा
बुझने लगी है लपट जिंदगी की
अपने आग में उसे तो ले जरा
बदन में उग रहा है तू कहीं
अपनी आहटें आ के सुन ले जरा
कुछ लब्ज भटकते हैं बे-आवाज
तू अपने सुर में उसे तो ले जरा
Friday, August 7, 2009
तुम्हारे मूड का भी न, कोई भरोसा नही !
एक अरसे बाद
बिताया सारा दिन आज तुम्हारे साथ
सुबह, तुम्हारे ख्वाब में आँख खोली थी
फ़िर बरामदे में कुर्सी डाले मारता रहा तुमसे गप्प
पूरे इत्मीनान से,
इसी बीच खत्म की चाय की दो प्यालियाँ भी
फ़िर कमरे में आकर,
रोशनदान से आती हुई धुप की जिस बारीक गरमाहट में
भींगता पड़ा रहा देर तक बिस्तर पे,
वो भी तुम्हारी हीं थी
जब नहाने गया तो
वहां भी आ गई तुम
पीठ पे साबुन मलने के बहाने
परोसा खाना अपने हाथ से
खाया मेरे साथ हीं आज कितने दिन बाद
और मेरे सिंगल-बेड पे मेरे साथ लेट कर फ़िर
सुनाती रही मुझे नज्में
फिर जरा सा आँख लगते हीं जाने कहाँ चली गई
उठा तो देखा कि शाम थी और उदासी थी
तुम्हारे मूड का भी न, कोई भरोसा नही!
बिताया सारा दिन आज तुम्हारे साथ
सुबह, तुम्हारे ख्वाब में आँख खोली थी
फ़िर बरामदे में कुर्सी डाले मारता रहा तुमसे गप्प
पूरे इत्मीनान से,
इसी बीच खत्म की चाय की दो प्यालियाँ भी
फ़िर कमरे में आकर,
रोशनदान से आती हुई धुप की जिस बारीक गरमाहट में
भींगता पड़ा रहा देर तक बिस्तर पे,
वो भी तुम्हारी हीं थी
जब नहाने गया तो
वहां भी आ गई तुम
पीठ पे साबुन मलने के बहाने
परोसा खाना अपने हाथ से
खाया मेरे साथ हीं आज कितने दिन बाद
और मेरे सिंगल-बेड पे मेरे साथ लेट कर फ़िर
सुनाती रही मुझे नज्में
फिर जरा सा आँख लगते हीं जाने कहाँ चली गई
उठा तो देखा कि शाम थी और उदासी थी
तुम्हारे मूड का भी न, कोई भरोसा नही!
Friday, June 12, 2009
तुम्हारी खिड़की पे रख दिया करूंगा सुबह!
सुबह-सुबह
अलसुबह
हर रोज , एक सुहानी सुबह
मैं रख दिया करूंगा
तुम्हारी खिड़की पे
तुम ले लेना जाग कर
मैं नहीं चाहता कि
रात भर तुम मेरे साथ
रह कर मेरे ख्वाबो में
किसी और की सुबह से दिन शुरू करो.
Thursday, May 21, 2009
कश में नहीं आयी
लबो पे हरकत करती रही
पर कश में नहीं आयी
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