वे टूटें
भूकंप के मकानों की तरह
और फटें
बादलों की तरह
हम कहीं दूर सूखे में बैठ कर
देखें उनका टूटना और फटना
लिखे उनके दुख और खुश होवें
टूट पड़ें सड़क पे
लाल बत्ती के हरी होते हीं
और बाजू में
बच कर निकलने के लिए संघर्ष करते
साइकिल वाले की साँसों का
उथल-पुथल देखते हुए
पार कर जाएँ सफ़र
रात की तेज बारिश में
बह गयी हों सारी यादें
तब भी सुबह उठ कर हम टाल जाएँ
खुद से बातें करना
और समय पे पहुँच जाएँ दफ्तर
दाल सौ रुपये किलो जाए
तो उसके साथ हम बेंच दे
अपनी मासूमियत
वो जलाएं हमें
और हम खींचें कश
मनहूस वक्त के छल्ले हर तरफ घूमते हों
अब और बंजर होने की जगह नहीं हो
और हमारा क्या
हमारे दिमागों में पतझड़ का मौसम हो
और वहां पहुँचने वाली नसें सूखी.
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15 comments:
Aapki rachnayen dilo-dimmag me bhookamp aur hadkamp dono macha deteen hain!
आस पास की परिस्थितियों की वेदना दिखती है आपकी इन पंक्तियों में...
सच में आपकी रचनाएँ तो दिल को छू लेती हैं...
उफ !त्रासदी का अंत नही न !
उसने पिलाई थी
एक घूँट नशा
जिंदगी का
ये लत है
मर्ज नही
जिंदगी की
यह सुखती दरिया
उफनती नही
जिन्दगी का
श्रापित है इश्क
बंजर सी
जिंदगी का !
कुछ आस पास की परिस्थितयो को सुंदर शब्दों का रूप दे अच्छी रचना बन पड़ी है. बधाई
Behad khubsurat aur gahari abhivyakti..pad kar accha laga!
Dhanywad
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
अब और बंजर होने की जगह नहीं हो
और हमारा क्या
हमारे दिमागों में पतझड़ का मौसम हो
और वहां पहुँचने वाली नसें सूखी.
dil ko chhu kar bahut kuchh kah jaane waali rachnaa hai
Regards
हमेशा की तरह दिल को छू जाने वाली शानदार रचना।
हमेशा की तरह सुंदर , सार्थक रचना ।
बहुत ही सुन्दर
बहुत संवेदनशील रचना
आज बड़े दिनों बाद आ पाया हूँ अपने प्रिय कवि के द्वारे...ढ़ेर सारी पुरानी स्मृतियाँ समे्टते हुये।
सिरहाने में से आधा चाहिये ने फिर-फिर से दीवाना बनाया...
कैसे हैं आप?
अब और बंजर होने की जगह नहीं हो
और हमारा क्या
हमारे दिमागों में पतझड़ का मौसम हो
और वहां पहुँचने वाली नसें सूखी.
ati sundar,aary jii
om ji..vakai soch ke banjar hone ki ginjaish hi nahi..awesome!
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