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Saturday, February 5, 2011

बदन पर का सतही तनाव बढ़ता जाता है

पिछला साल ख़त्म हुआ
और ये नया साल भी
अपनी रोजमर्रा की चाल से चलता हुआ
एक महीना और पांच दिन गुजार चुका है
और तमाम कोशिशों के बाबजूद
इस नए साल में
मैं प्यार नहीं कर पाया हूँ तुम्हें

दोष किसी भी चीज के मत्थे मढ़ दूं
पर हकीकत कुछ और है
और वो बहुत तेजी से बेचैन कर रहा है मुझे
और चौंकाता है कि
बिना प्यार के हीं चल रहा हूँ मैं आजकल

मुझे नहीं मालूम था
कि अचानक से ये खो जाएगा एक दिन
मृत्यु के पहले हीं
और मुझे केवल सांस के सहारे
छोड़ दिया जाएगा

तभी तो कभी जरूरत नहीं समझी जानने की
कि कहाँ से उगता है,
कैसा है इसका बीज और
किसने रोपा था इसे
और अब तो कहीं दीखता हीं नहीं ये
अब कहाँ पानी डालूँ, कहाँ दिखाऊं धूप

पतझड़ में नंगी शाखों की पीड़ा
अब बहुत घनी है मुझमें
बदन पर का सतही तनाव बढ़ता चला जाता है
दरारें उगती आती हैं

तुम तक पहुँचने की
और तुम्हारा ह्रदय छू लेने की उत्कंठा
उत्कट हुई जा रही है
मैं मर रहा हूँ
और जाने क्यूँ ऐसा लग रहा है कि
तुम देख भी नहीं पा रही
तुम तक पहुँचने की मेरी जद्दोजहद

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Sunday, June 20, 2010

जब रातें सारी ख्वाब में बर्बाद होती हों !

जब कवितायें लिखना हो एक आदत
और बिना कोशिशों के छूटती जाती हों सब आदतें
लिखते वक़्त बहुत सारी पंक्तियाँ
रह जाती हों बाहर
और भींग कर गल जाती हों बारिश में

जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार

या फिर ताक़ पे रख देते हों
बदन में इतना दर्द रहता हो
कि एक के बाद एक सारी इतवारें रहती हों दुखी

जब यादें लगातार आती हों
और लगता हो कि वे आएँगी हीं
और हार कर रोना छोड़ दिया गया हो
और यह समझ लिया गया हो
कि रिश्तों को संभालना होता है इकतरफा हीं

जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा

जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो

जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में,
नींदें खुलने के बजाये हमेशा टूटती हों
और सुबह

सारी रात ख्वाब में बर्बाद हो जाने का
रहता हो अफ़सोस

वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
और कवितायें घूम कर

उस तरफ चली जाती हैं
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Tuesday, October 6, 2009

यादें

कई यादें हैं
एक से लगती हुई एक
पीछे, बहुत दूर तक फैली हुई
जहाँ तक नजर जाती है.
जैसे पहाड़ियाँ होती हैं
एक से एक लगी हुई, फैली दूर तक
जहाँ पनाह पाता है सूरज शाम को

कुछ यादें,
जो बसी हैं
बिल्कुल तराई में
कभी जब हो जाती है मूसलाधार बारिश,
तो उनका बहाव
बदन के कगारों को तोड़ते हुए
पहुँच जाता है पलकों तक
और बहने लगता है धार धार


बहुत बार डाली है मिट्टी
बहुत बार ढँक दिया है
मोटी परतों से,
याद के
उन गहरे निशानों को
पर कोई भी,
किसी संगीत का टुकड़ा, कविता की कोई पंक्ति,
या ऐसे ही
बाजार में टहलता हुआ कोई लम्हा,
तोड़ कर
चला जाता है
उन बांधों को
और पानी, फिर बाहर आने लगता है

मैं कहाँ से लाऊँ
अब इतनी मिट्टी
जो रोक सके उन यादों का बहाव
जो बहा ले जाती है
बार- बार मुझे.

Wednesday, September 23, 2009

सुबह तक तो हौसले में ले जरा !

मैं नींद को तेरे से लू चुरा
अपनी नजर में मुझे तू ले जरा

मैं तेरा हूँ, ये मुझे यकीन हैं
तू इसे अपनी यकीन में ले जरा

रात है घनी और तन्हाई टूटी हुई
सुबह तक तो हौसले में ले जरा

बुझने लगी है लपट जिंदगी की
अपने आग में उसे तो ले जरा

बदन में उग रहा है तू कहीं
अपनी आहटें आ के सुन ले जरा

कुछ लब्ज भटकते हैं बे-आवाज
तू अपने सुर में उसे तो ले जरा

Saturday, September 5, 2009

अभी-अभी उसके ख्वाब से लौटी हूँ !!

आँख बढ़ा कर
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको,

आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के

फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी

फिर हौले से
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
एक के बाद एक,
जो अब तक
बंद पड़ी थी किसी संदुकची में

जमी हुई साँसें पिघल गयी
और जिस्म ने भी
सारे गुबार निकाल दिए, दबे हुए

ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है