आँख बढ़ा कर
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको,
आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के
फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी
फिर हौले से
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
एक के बाद एक,
जो अब तक
बंद पड़ी थी किसी संदुकची में
जमी हुई साँसें पिघल गयी
और जिस्म ने भी
सारे गुबार निकाल दिए, दबे हुए
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको,
आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के
फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी
फिर हौले से
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
एक के बाद एक,
जो अब तक
बंद पड़ी थी किसी संदुकची में
जमी हुई साँसें पिघल गयी
और जिस्म ने भी
सारे गुबार निकाल दिए, दबे हुए
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
30 comments:
वाह ओम जी बहुत खुब, अब तक की रचनाँओ मे आपकी ये रचना मुझे सबसे ज्याद पंसद आयी। लाजवाब
क्या कहूंम निशब्द हूँ शायद मिथिलेशजी ने सही कहा है अद्भुत सुन्दर रचना जैसे सभी एहसास इस एक रचना मे पिरो दिये हों बधाई
kavita nahi mano ek khab tha...ek khoobsurat tilasmi khab...khabo ki duniya me le gya ye khab....khab jo sone na de...apki lajwab swapnil kavita.....amazing.....
आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के
... इसे ही कहते है शब्द की जादूगरी... वाह
आँख बढ़ा कर
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको
...और इसे कल्पना की उडान, सोच से परे
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
.... अरमान - आह!
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
... चरमोत्कर्ष! क्लाइमेक्स !
... रामबाण निष्कर्ष! पञ्च लाइन गुरु!
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
waah bahut khubsurat
बहुत ही लाजवाब एवं बेहतरीन रचना, बधाई
भई, बहुत बढ़िया. खासकर
आँख बढ़ा कर
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको
लाजवाब अनूठी रचना...बधाई...
नीरज
कितनी सुन्दर अनुभूति ।
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
वाह ......... लाजवाब .......... गहरी बात ............. ओम जी कभी कभी सोचत हूँ इतने एहसास कैसे उतार देते हैं आप अपनी रचना में ............... लगता है जैसे सांस ले रहे हों आपके शब्द ............ और हमारे पास उस वक़्त शब्दों का टोटा पड़ जाता है .... मन बहुत कुछ कहना चाहता है पर कह नहीं पाता .........
ओम भाई,
बहुत शानदार-जानदार रचना ! भावनाओं के आकाश में शब्दों को जिस करीने और saleeke से आपने sajaya है आपने, वह padhte ही halchal machaa देता है. ये hunar और ये andaaze-bayan ba-kamaal है. आपकी kalam को salaam है ! sapreet...
फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी
raj ji ki maat meri bhi maan lijiye.
badhai itni badhiya rahcna ke liye.
nihshabd se ehsaas
नही पता कि , आपकी किस रचनाको 'बेहतरीन ' कहूँ ...! हर बार आप भी ' ख़ामोश' कर देते हैं !
आपकी हर कल्पना लाजवाब होती है।
{ Treasurer-S, T }
वाह ओम भाई गजब की रचना !!
wah om ji, gazal kya cheez hai is rachna ke saamne, bahut hi umda, anupam rachna , badhai.
ओम जी,
आपकी रचनायें शाय्द जादू जानती हैं कि बड़ी ही सफाई से नज़रों के रास्ते दिल में उतर जाती हैं। शब्द जैसे कमाल करते हैं ;-
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
पढ़ने का लुत्फ आता है.....
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
केवल शानदार लिखती हूं तो रस्मादायगी लगती है, व्याख्या करना चाहती हूं तो शब्द कहीं गुम हो जाते हैं बस एक ही आवाज़ सुनाई देती है- लाजवाब.
आपने पम्पलेट बदल क्यों दिया? काले रंग पर अक्षर आंखों को तकलीफ़ देते हैं. पहले वाला तो बहुत अच्छा था.
आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के
फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी
लाजवाब
बहुत ही खुबसूरत रचना ओ़म जी।
Beautiful poem, as usual.
and new template looks nice...
Shilpa
बहुत खूब रहा आपका यह ख्वाबीदाँ मगर मौन वार्तालाप..बधाई है.
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
बेहद खूबसूरत रचना
पढने के बाद भी माथे की सारी सिलवटे मिट गयी.
बहुत खुब रचनाओं के माध्यम से बिहार के सोये जमीर को जगाने का काम करे।हमलोग लगातार मिलते रहेगे।
Bahut sunder najm, khas kar badan par ek bhee silwat na rehane kee bat.
Om Arya Ji,
main hoon to bahut adana sa insan ...lekin aisee tippaniyon ka kya matalab....lage raho ka matalab samjha den to badee kripa hpgee.
Hemant kumar
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
Om ji.......... ky alines likhu hain aapne........
aapki kalpnasheelta ka bhi jawab nahin.........
बहुत सुंदर और अद्भूत रचना! आपकी लेखनी को सलाम! आपकी रचनाओं की जितनी भी तारीफ की जाए कम है!
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
kya kahun...........nishabd ho gayi padhkar.........na jaane kya chupa hai is rachna mein..........dil ko choo gayi
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