[आज हीं यह कविता 'हिंद युग्म' पर प्रकाशित हुई है, आप में से कई मित्रगण ये कविता पहले हीं पढ़ चुके हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे चुके हैं, पर कुछ अन्य मित्रगण शायद न देख पाए हों, उनके लिए विशेष रूप से फ़िर से प्रस्तुत कर रहा हूँ. ]
कहीं भी
कोई जगह नही है
जिसे दश्त कहा जा सके
और जहाँ
फिरा जा सके मारा-मारा
बेरोक- टोक
समय के आखिरी सांस तक.
कहीं कोई जमीन भी नहीं
जिस पर टूट कर,
भरभरा कर,
गिर जाया जाए,
मिटटी हो जाया जाए
और कोई उठानेवाला न हो
और हो भी तो रहने दे पड़ा,
बिल्कुल न उठाये
छोड़ दे ये देह
और रूह भी साथ न दे
ऐसी परिस्थिति में
ले जाया जाए मुझे
जहाँ अनंत दुःख हो
और अकेले भोगना हो
मैं बस इतना चाहता हूँ कि
तुमसे अलग होने का जो दुःख है
उस के बाजू में
किसी और दुःख की
एक बड़ी लकीर खींच दूँ ।
29 comments:
पुनः प्रस्तुति के लिए धन्यवाद उम्दा रचना .
वाह-वाह आपकी हर एक रचना में गजब होता है।
वाह-वाह गजब उम्दा रचना .
किसी और दुःख की एक बड़ी लकीर ! क्या बात है !
मैं बस इतना चाहता हूँ कि
तुमसे अलग होने का जो दुःख है
उस के बाजू में
किसी और दुःख की
एक बड़ी लकीर खींच दूँ ।
बहुत अच्छा किया जो इस रचना को पुनर्प्रकाशित किया...
गजब की भाव अभिव्यक्ति । भैया आपकी यह रचना बहुत हीं अच्छी लगी । आभार ।
hind yugm ek acchablog ya portal hai../..
par wahan jaana kum ho pata hai....
atha is post ko hamare jaise paathakon se share karne ke liye dhanyavaad !!
"फिरा जा सके मारा-मारा
बेरोक- टोक
समय के आखिरी सांस तक."
pata nahi kyun apki is pst main ek apnatav sa laga:
"बौना होता 'अस्तित्व'...
आवश्यकता कहाँ द्वार की?
पर्याप्त....
एक क्षुद्र छिद्र...
अनंत में यदि मिल जाए कहीं,
"
bahut accha lagta hai aisa dekhkaar !!
aaur aapke vichar padhkaar !!
atyant khoobsoorat post !!
vichaarniya.
gazab ke bhav bhare hain rachna mein.........ek aah si nikal jaye jab koi kheenche aisi lakeer.........waah.
बहुत ही मार्मिक रचना लिखी है आपने।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
अच्छा किया जो इस कविता को यहाँ पोस्ट किया... मुझे वहां जाने का वक़्त नहीं मिल पता... सो हम जैसे आपके दीवाने फिर क्या करते... यानि महरूम रह जाते.... आज मेरी भी डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में बीबीसी पर दिया गया कमेन्ट आया है... अखबार पर आपना पोस्ट देखना अच्छा लगा...
ओम भाई मै तो यही पढ़ रहा हु सही लिखा है आपने
ओन जी एक बार फिर से बधाई मै पढ चुकी थी आभार्
निर्मला जी
दुबारा पढने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद,ऐसे ही स्नेह बनाये रखे!
सादर
ओम आर्य
nisandeh behatareen rachna, badhai.
सारा अर्थ तो आपने अंतिम पैरा में लिख दिया। बहुत शानदार, अद्भुत..और क्या कहूं
।
वाह वाह बहुत बढ़िया! इस शानदार और उम्दा रचना के लिए बहुत बहुत बधाई!
किसी और दुःख की
एक बड़ी लकीर खींच दूँ ।
बहुत ही भावमय बेहतरीन प्रस्तुति, बधाई ।
बिछड़ने का गम असहनीय है. हम आपके दर्द को समझ सकतें है.
umda rachna..........
badhai..........
om ji,
dukh ki badi lakeer kheenchane ki baat ...bahut gazab ki kahi hai....sundar kriti ke liye badhai...
भरभरा कर,
गिर जाया जाए,
मिटटी हो जाया जाए
और कोई उठानेवाला न हो
वाह क्या बात है
मैं बस इतना चाहता हूँ कि
तुमसे अलग होने का जो दुःख है
उस के बाजू में
किसी और दुःख की
एक बड़ी लकीर खींच दूँ .....
बधाई ओम जी .......... शशक्त रचना है, कमाल की कविता है .......... बहुत ही गहरी अभिव्यक्ति है ....... दुःख को कम करने की चाह से उपजी आपकी रचना लाजवाब है ....... अनोखी भावनाओं से जूझती रचना का हर छंद दिल में उतर जाता है .....
मैं बस इतना चाहता हूँ कि
तुमसे अलग होने का जो दुःख है
उस के बाजू में
किसी और दुःख की
एक बड़ी लकीर खींच दूँ ।
kuch nahin kahoonga.......... ab to.........
aapne bahut badi baat kah di hai.......
gr8.......
आप बहुत खुश नसीब हैं जो आपको ऐसी जगह ही नहीं मिल पा रही है वर्ना आज तो हालात इससे भी बदतर है..........
गहरे भावों की इस कविता पर आपका हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
भावों का ऐसा विस्तार. बहुत खूब लिखा.
सही सोच।
दुर्गापूजा एवं दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
Ye badi lakir ka khyaal achha hai .....!!
ek bahut pyaree rachana.
मैं बस इतना चाहता हूँ कि
तुमसे अलग होने का जो दुःख है
उस के बाजू में
किसी और दुःख की
एक बड़ी लकीर खींच दूँ ।
वाह ! अद्भुत प्रस्तुति !
दुःख को जीतने की एक नयी कला !
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