मै तुम्हें कितना कम प्यार देता हूँ
और उतने से हीं तुम
कितना ज्यादा भर जाती हो
ऐसा नहीं है कि
तुम्हारी धारिता कम है
या इच्छा
पर जितना
ख्वाब के भीतर रहकर
दिया जा सकता है प्यार
उतना मुश्किल होता है देना
ख्वाब के बाहर रहते हुए,
मेरे लिए और शायद किसी के लिए भी,
तुम जानती हो
तुम जानती हो
कि इस बदल चुके हालात में
जब कहीं-कहीं बहुत कम हो रहे हैं बादल
और कहीं-कहीं बहुत ज्यादा हो रही है बर्फ,
फसलें लील लेती हैं जमीन कों हीं
और उससे जुडा सीमान्त किसान
फंदे बाँध लेता है
तुम जानती हो
कि मांग को थाह में रखना कितना जरूरी है
चाहे वो प्यार की हीं मांग हो
मैं जानता हूँ
तुम्हारे लिए
प्यार किसी एक वर्षीय या
पंचवर्षीय योजना की तरह नहीं है
जिसमे सब कुछ एक निर्धारित समय के लिए होता है
और जैसा कि अभी चलन में है
बल्कि सतत चलायमान प्रक्रिया है
ये प्यार तुम्हारे लिए
और तुम चाहती हो
फसल थोड़ी हो पर कोंख बंजर न होने पाए
तभी तो मेरे कितने कम प्यार से
तुम कितना ज्यादा भर जाती हो
और मौसम पे जब भी छलक के गिरता है प्यार
वे जान जाते हैं
कि मैं तुम्हें कर रहा हूँ थोडा सा प्यार
आगे के लिए बचा कर रखते हुए अपना प्यार.
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Friday, March 5, 2010
Wednesday, October 21, 2009
तुमने कहा था इसलिए...
१)
चुप सी रहा करती है
एकदम निःशब्द आँखें हैं
लाख निचोड़ लो,
नहीं मिलता एक भी सुराग
बस बहती रहती है मुसलसल
चाहे कोई भी मौसम हो
ऐसे जैसे कोई खाली आसमान बरसता हो लगातार
कोई बताये उसे
कि नीचे खड़ा भींगता रहता है कोई उनमे
२)
इन दिनों
उग आया है एक पौधा
मेरे आँगन में
लाजवंती का
मैं उसकी तरफ देखने से बचता हूँ
वो कहा करती थी
मेरी आँखों का स्पर्श बहुत गहरा है
३)
भीतर का मौन
और बाहर का सन्नाटा
दोनों टूटे हैं एक साथ
चूल्हे पे चढ़े
आवाज का ढक्कन उड़ गया है
दरअसल कभी-कभी
बहुत शोर हो जाता है मुझसे
अक्सर तब,
जब याद आ जाती है
ज़माने की विसंगतियां
और हमारा सपना, बिखरा हुआ
चुप सी रहा करती है
एकदम निःशब्द आँखें हैं
लाख निचोड़ लो,
नहीं मिलता एक भी सुराग
बस बहती रहती है मुसलसल
चाहे कोई भी मौसम हो
ऐसे जैसे कोई खाली आसमान बरसता हो लगातार
कोई बताये उसे
कि नीचे खड़ा भींगता रहता है कोई उनमे
२)
इन दिनों
उग आया है एक पौधा
मेरे आँगन में
लाजवंती का
मैं उसकी तरफ देखने से बचता हूँ
वो कहा करती थी
मेरी आँखों का स्पर्श बहुत गहरा है
३)
भीतर का मौन
और बाहर का सन्नाटा
दोनों टूटे हैं एक साथ
चूल्हे पे चढ़े
आवाज का ढक्कन उड़ गया है
दरअसल कभी-कभी
बहुत शोर हो जाता है मुझसे
अक्सर तब,
जब याद आ जाती है
ज़माने की विसंगतियां
और हमारा सपना, बिखरा हुआ
Wednesday, October 14, 2009
पतझड़ का सिलसिला थमता नही !
चील से उडते हैं मौसम
जैसे झपट्टा मारने को हों
अलसायी पडी जिंदगी
सुखती रहती है टहनी पे,
जम्हाई लेती दुपहरी के रोशनदानो से
झुलसी हुई हवा का आना जाना लगा रहता है
दीवारे तपने लगती है अल्लसुबह से
भीतर ही भीतर
धाह मारती रहती है
भिंगोता हूँ, पानी छिडकता हूँ पर ताप थमती नही
जिंदगी सब्ज नही होती
शाखें बिना कोंपलो के डोलती रहती है.
वो अपने छाँव जो ले गयी है .
जैसे झपट्टा मारने को हों
अलसायी पडी जिंदगी
सुखती रहती है टहनी पे,
जम्हाई लेती दुपहरी के रोशनदानो से
झुलसी हुई हवा का आना जाना लगा रहता है
दीवारे तपने लगती है अल्लसुबह से
भीतर ही भीतर
धाह मारती रहती है
भिंगोता हूँ, पानी छिडकता हूँ पर ताप थमती नही
जिंदगी सब्ज नही होती
शाखें बिना कोंपलो के डोलती रहती है.
वो अपने छाँव जो ले गयी है .
Saturday, September 5, 2009
अभी-अभी उसके ख्वाब से लौटी हूँ !!
आँख बढ़ा कर
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको,
आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के
फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी
फिर हौले से
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
एक के बाद एक,
जो अब तक
बंद पड़ी थी किसी संदुकची में
जमी हुई साँसें पिघल गयी
और जिस्म ने भी
सारे गुबार निकाल दिए, दबे हुए
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको,
आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के
फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी
फिर हौले से
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
एक के बाद एक,
जो अब तक
बंद पड़ी थी किसी संदुकची में
जमी हुई साँसें पिघल गयी
और जिस्म ने भी
सारे गुबार निकाल दिए, दबे हुए
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
Monday, June 22, 2009
खिल कर गमले की मिट्टियो में
लिहाफ हो जाता है प्यार तेरा
ओढ के लेटता हूँ जब सर्दियो में
नजरो में रखता हूँ तेरी यादो के पन्ने
और पलट लिया करता हूँ उदासियों में
मौसम को यूँ बेकाबू किया न करो
खिल कर गमले की मिट्टियो में
गुनगुनी धूप में छत पे आ कर
बचा लिया करो मुझे सर्दियों में
तेरी दूरी ने बनायी खराशे जिस्म पे
और खरोंचे मेरी हड्डियो में
ओढ के लेटता हूँ जब सर्दियो में
नजरो में रखता हूँ तेरी यादो के पन्ने
और पलट लिया करता हूँ उदासियों में
मौसम को यूँ बेकाबू किया न करो
खिल कर गमले की मिट्टियो में
गुनगुनी धूप में छत पे आ कर
बचा लिया करो मुझे सर्दियों में
तेरी दूरी ने बनायी खराशे जिस्म पे
और खरोंचे मेरी हड्डियो में
Monday, June 8, 2009
किस तरह तुम छू पाओगी बसंत अब !
अब
किस तरह तुम
छू पाओगी बसंत
जबकि
अभी-अभी तुमने
बुहार कर
एक जगह इकठ्ठा किये गए
सारे पतझड़ को
पैर मार कर
सभी मौसमों पे छीतेर दिया है
किस तरह तुम
छू पाओगी बसंत
जबकि
अभी-अभी तुमने
बुहार कर
एक जगह इकठ्ठा किये गए
सारे पतझड़ को
पैर मार कर
सभी मौसमों पे छीतेर दिया है
Friday, May 15, 2009
गुनगुनी धूप वाले मौसम
कुछ गुनगुनी धूप वाले मौसम होते हैं
जो पसर जाते हैं जिंदगी की अलगनी पर
कुछ इस तरह जैसे कि वे सारा पतझर ढांप लेंगें।
तमाम उगे हुए दर्द और सुखी हुई तन्हाईयाँ गिरा कर
वो भर देते हैं नंगी शाखों को कोंपलों से।
कोयल कूकती है, पपिहे गाते है
और योवन दुबारा पनपने लगता है।
गुनगुनी धूप वाले मौसमों को भी जाना होता है
वे चले जाते हैं
पर जब कभी चाँद मद्धम हो, रातें
सर्द और जिंदगी को कहीं दुबकने का जी हो
तो वो गुनगुनी धूप वाले मौसम उतर आते हैं अलगनी से
और ढांप लेते हैं अपनी धूप से
ऐसा ही एक मौसम मेरी डायरी में रखा है
वो मौसम तुम्हारा है
और उसमे तुम्हारी गुनगुनी धूप है।
जो पसर जाते हैं जिंदगी की अलगनी पर
कुछ इस तरह जैसे कि वे सारा पतझर ढांप लेंगें।
तमाम उगे हुए दर्द और सुखी हुई तन्हाईयाँ गिरा कर
वो भर देते हैं नंगी शाखों को कोंपलों से।
कोयल कूकती है, पपिहे गाते है
और योवन दुबारा पनपने लगता है।
गुनगुनी धूप वाले मौसमों को भी जाना होता है
वे चले जाते हैं
पर जब कभी चाँद मद्धम हो, रातें
सर्द और जिंदगी को कहीं दुबकने का जी हो
तो वो गुनगुनी धूप वाले मौसम उतर आते हैं अलगनी से
और ढांप लेते हैं अपनी धूप से
ऐसा ही एक मौसम मेरी डायरी में रखा है
वो मौसम तुम्हारा है
और उसमे तुम्हारी गुनगुनी धूप है।
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