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Wednesday, January 26, 2011

मुझमें अब बहुत शीशा और पारा है...

तुम तक लौटना है
और राह बनती नहीं

कई बार यूँ हुआ है कि
रखता गया हूँ
लब्जों को एक के ऊपर एक
और लगा है राह तुम तक पहुँचने की
मिल गयी अब
पर फिर जाने क्या होता है
एक एक कर सारे लब्ज मुंह मोड़ लेते है
और तय किये सारे रास्ते
फिर सामने आ खड़े होते हैं

अब जबकि भर चुका है
मेरी हवा में इतना शीशा
और मेरे पानी में इतना पारा
मुझे लौटना हीं होगा तेरे गर्भ में ओ मेरी नज़्म
और फिर जन्मना होगा अपने मूल ताम्बई रंग में
पाक होकर

मुझे तुम तक लौटना हीं लौटना है
पर जो मैं न लौट सकूं तुम तक
तो तुम आगे बढ़ आना ओ मेरी नज़्म
मुझमें अब बहुत शीशा और पारा है...

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Sunday, June 20, 2010

जब रातें सारी ख्वाब में बर्बाद होती हों !

जब कवितायें लिखना हो एक आदत
और बिना कोशिशों के छूटती जाती हों सब आदतें
लिखते वक़्त बहुत सारी पंक्तियाँ
रह जाती हों बाहर
और भींग कर गल जाती हों बारिश में

जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार

या फिर ताक़ पे रख देते हों
बदन में इतना दर्द रहता हो
कि एक के बाद एक सारी इतवारें रहती हों दुखी

जब यादें लगातार आती हों
और लगता हो कि वे आएँगी हीं
और हार कर रोना छोड़ दिया गया हो
और यह समझ लिया गया हो
कि रिश्तों को संभालना होता है इकतरफा हीं

जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा

जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो

जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में,
नींदें खुलने के बजाये हमेशा टूटती हों
और सुबह

सारी रात ख्वाब में बर्बाद हो जाने का
रहता हो अफ़सोस

वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
और कवितायें घूम कर

उस तरफ चली जाती हैं
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