Thursday, May 21, 2009

कश में नहीं आयी

लबो पे हरकत करती रही
पर कश में नहीं आयी

हजार बार जलायी
पर तलब जली नही
धुएँ बनते रहे हालाँकि

रात कैक्टस के सिरहाने जागती रही
आँखों में नींद चुभती रही
यूँ ही पड़े पड़े थकता रहा समय

कमरा धुएँ सा ही रहा
दीवारें सलेती होती रहीं
बहूत देर इंतज़ार किया पर
कोई नही आया
सुबह ना ही नींद

4 comments:

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

सुन्दर अभिव्यक्ति है...

डॉ .अनुराग said...

रात कैक्टस के सिरहाने जागती रही
आँखों में नींद चुभती रही
यूँ ही पड़े पड़े थकता रहा समय


लाज़वाब ....बेमिसाल ...अद्भुत.....

Yogesh Verma Swapn said...

sunder abhivyakti .

संध्या आर्य said...

रात कैक्टस के सिरहाने जागती रही आँखों में नींद चुभती रही यूँ ही पड़े पड़े थकता रहा समय......
.....भाव और शब्दो का अनोखा चित्रण .....बहुत खुब .....