Wednesday, May 6, 2009

लुप्त होते ख्वाब

सुबह पर धूप ने अभी अभी चादर लपेटी है
दूब पर बैठे ओस के परिंदे अपने पर फैलाने लगे हैं।
ख्वाब भी नींद की आरामगाह से निकल कर
अपने-अपने तलाश में
निकल करसड़कों पे दौड़ने लगे हैं।
अपनी अपनी गति से,
अपनी अपनी उम्मीद और धुन में,
अपने अपने पेट्रोल के सहारे।

एक ही सड़क पे
एक साथ दौड़ते ख्वाबों क़ी भी
बहुत जुदा हैमंज़िल ,
बहुत जुदा है
हाथ, कंधे और आँख

इतने तीव्र और बेचैन हैं वे कि
अपने लहू की कराहें भी सुनाई नही पड़ती।
या अनसुनी कर देते हैं कि दौड़ में आगे निकल सकें।

कोई बताए उन्हे याद दिलाए कि वे ख्वाब हैं
फुर्सत और नींद ज़रूरी है उनके लिए।
वरना वे शीघ्र हीं स्खलित हो जाएँगे
और उनकी अगली पीढ़ी कगार पे होंगी.

4 comments:

संध्या आर्य said...

वाकई, लुप्त होते ख्वाबो को बचाने की जरुरत है!

डिम्पल मल्होत्रा said...

khabo ko kahi mat jane dijiye....enhe lupat hone se rok le...yahi to zindgee hai...

Yogesh Verma Swapn said...

bahut achche om ji vartman yuva pidhi ki jiwan shaili ko bayan karne ki adbhut shaili, umda rachna.

admin said...

शायद ये संक्रमण का काल है, तभी ख्‍वाबों का इतना बुरा हाल है।

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SBAI TSALIIM