एक लम्बा अरसा हुआ
एक हल्की सी उम्मीद और
एकाध मुस्कराहट के साथ
वक़्त फांकते हुए
धूल चटाने के हौसले खुद मिट्टी होने को हैं
आवाज उठाने वाले सिर महज
सिर हिलाने वाले न बन जाये
ये डर है
हाथों में कसी मुठ्ठियों की जगह
प्रार्थना लेने लगी है
बाजुओ में वो पहले से पंजे नही रहे
दिल में ये डर धीरे धीरे बैठ रहा है
कि एक दिन बदल जाऊँगा मैं भी
जैसे बदल जाता है एक आदमी
दुनिया के दबाब में
और दुनिया जस की तस बनी रहती है
चलती रहती है
ताकत, अन्याय और शोषण के पहियों पर
3 comments:
कैसे हैं साहब, अच्छी कविता पेश करी है।
वक्त ही सब कुछ होता है.........वक्त से ही हार है और वक्त से ही जीत..............एक सम्वेदनशील रचना
दिल में ये डर धीरे धीरे बैठ रहा है
कि एक दिन बदल जाऊँगा मैं भी
जैसे बदल जाता है एक आदमी...sahi kaha apne hum sab sahi me badal jate hai
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