Friday, May 22, 2009

डरी हुई कविता

एक लम्बा अरसा हुआ
एक हल्की सी उम्मीद और
एकाध मुस्कराहट के साथ
वक़्त फांकते हुए

धूल चटाने के हौसले खुद मिट्टी होने को हैं

आवाज उठाने वाले सिर महज
सिर हिलाने वाले न बन जाये
ये डर है

हाथों में कसी मुठ्ठियों की जगह
प्रार्थना लेने लगी है

बाजुओ में वो पहले से पंजे नही रहे

दिल में ये डर धीरे धीरे बैठ रहा है
कि एक दिन बदल जाऊँगा मैं भी
जैसे बदल जाता है एक आदमी
दुनिया के दबाब में
और दुनिया जस की तस बनी रहती है
चलती रहती है
ताकत, अन्याय और शोषण के पहियों पर



3 comments:

Vinay said...

कैसे हैं साहब, अच्छी कविता पेश करी है।

संध्या आर्य said...

वक्त ही सब कुछ होता है.........वक्त से ही हार है और वक्त से ही जीत..............एक सम्वेदनशील रचना

डिम्पल मल्होत्रा said...

दिल में ये डर धीरे धीरे बैठ रहा है
कि एक दिन बदल जाऊँगा मैं भी
जैसे बदल जाता है एक आदमी...sahi kaha apne hum sab sahi me badal jate hai