Sunday, May 10, 2009

शहर, पुराने बाशिंदे, माएं और पिता

(मदर्स डे पर ....)

शहर
अपने
पुराने बाशिंदों को
पुराने पोलीबैगों में भरकर
कुडेदानों में
फेंक आया है

वे मिल जाते हैं
कभी रेल की
उन पुरानी पटरियों पे बैठे
जहाँ से रेल नही गुजरती
और कभी
पुराने उजडे बागों में
जहाँ अब उनके सिवा
कोई नही जाता

उनकी जिंदगी से अब
कोई नही गुजरना चाहता

वे सब पुराने बाशिंदे
अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं
वे सब
जिन्दगी को रोज कोसते हुए गुजारते हैं

उनमें माएं हैं और पिता हैं !

10 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मातृ-दिवस की शुभ-कामनाएँ।

RAJNISH PARIHAR said...

जी ,हो तो यही रहा है..पर ये सूरत बदलनी चाहिए...

Vinay said...

आज के सत्य को बख़ूबी कविता में बयाँ किया है

संध्या आर्य said...

बहुत खुब .....एक बहुत अच्छी कविता

Kulwant Happy said...

शब्दों में सत्य को परो डाला
क्या खूब..

Yogesh Verma Swapn said...

omji, aaj ki rachna ki bahut hi adhik tareef karne koji chahta hai, bahut hi badhia abhivyakti hai, sheeghra hi hum bhi shumaar hone wale hain purane bashindon men, vaise to sabhi ko ye din dekhna hoga aaj ke haalat ko dekhte hue. badhai

डिम्पल मल्होत्रा said...

marmik kavita.....

हरकीरत ' हीर' said...

वे सब पुराने बाशिंदे
अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं
वे सब
जिन्दगी को रोज कोसते हुए गुजारते हैं

उनमें माएं हैं और पिता हैं !

वाह.....! लाजवाब अभिव्यक्ति.....!!

आप क्या कम शब्दों के जादूगर हैं.......??

Chandan Kumar Jha said...

बहुत हीं सुन्दर कविता.आभार.

गुलमोहर का फूल

डॉ .अनुराग said...

शुक्रिया .इसलिए की मुझे वो शब्द नहीं पढने थे जिनमे माँ के कसीदे लिखे हो.....हकीक़त तल्ख़ होती है .पर क्या करे....