जहाँ बैठ कर मैं रोया था
वहां अभी तक
तुम्हारे कंधे नहीं पहुंचे
मैं अक्सर टाल जाता हूँ
वहां से गुजरना,
वहां बैठ कर सुबकता हुआ मैं
तेज कर देता है अपना रोना
मुझे देखते हीं
पर अक्सर नहीं भी टाल पाता
और ये देखने पहुँच हीं जाता हूँ
कि शायद तुम्हारे कंधे पहुँच गए हों अब
मैं जानता हूँ
कहाँ होंगे तुम्हारे कंधे अभी
और अगर पहुंचूं वहां मैं
तो तुम रोक न पाओ और बढ़ा दो उन्हें
पर जाने कौन है
जो जिद पे अड़ा है कि
वे कंधे वहां क्यूँ नहीं पहुंचे अभी तक
जहाँ बैठ कर मैं रोया था
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16 comments:
6.5/10
उत्कृष्ट रचना
आपको पढना सुकून भरा लगा
जैसे-जैसे नए-नए ब्लॉग तक पहुँच रहा हूँ हैरत बढती जा रही है. एक से एक प्रतिभाशाली रचनाकार/लेखक यहाँ मौजूद हैं. फुरसत मिलते ही आपकी पिछली रचनाएं भी पढना चाहूँगा.
उन चुभते छिपाये गये भावों को न बताना पुरुष को गर्व और ग्लानि दोनों ही देता है।
वाह
वाह
वाह
wow great ...
bahut hi sundar!
Beautiful as always.
It is pleasure reading your poems.
नींद की लम्बी और गहरी सांसे
उतर गयी थी
ख्वाबो मे
ली गयी सांसो मे
जहाँ नींद आने से पहले
कुछ मासूम नन्ही उंगलियो ने
पकड लिये थे कंधो को
जागते सपनो मे
नींद का गहरा होना
आसमान पर पहुंच कर
तारो को छू लेने जैसा है
कंधो और आंखो के
बीच की दूरी
महसूस लिये जाने से पूरी होती है !
सुन्दर रचना!
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मंगलवार के साप्ताहिक काव्य मंच पर इसकी चर्चा लगा दी है!
http://charchamanch.blogspot.com/
beautiful!
कितनी खूबसूरत शिकायत है.
बहुत ही अच्छी कविता लगी.
क्या बात है..वाह!
ख्वाब नन्ही उंगलियो सी
होती है मासूम
जब भाव शुन्य काली
रातो से गुजरती है
जिंदगी
राते घुप अंधेरो से भरी
जिसमे अपने ही पैर
उलझने लगने लगे
चलते वक्त
चोट से आहत मन
दूर कही दरियाओ मे
गोते लगाये
और सिपियो से भी
दर्द के मोती ही मिले
.
जिन्हे टांकते जाये
धडकनो पर
इंतजार मे नन्ही उंगलियो की
आये और थाम ले
दर्द से सजे
धडकनो के कंधो को
यह सच है की दर्द का
बोझ जब बढ जाये
धडकनो के कंधो पर
तब नन्ही उंगलियो का सहारा
एकमात्र होता है !
खूबसूरती से की गयी शिकायत
बहुत खूब
जिस संजीदगी से आप अपने एहसास को पिरोते हैं क्या कहने
बढ गये कदमो के
पीछे छूटे निशान का
हिसाब
कलेजे मे चुभे कील
गाँव की पगडंडी पर
पडे कदम
जो कच्चे रास्तो के
पक्के निशान थे
जिसपर चलकर ही
उसे शहर मे आना था
और वह गाँव जहाँ
हर सुबह ओंस की नन्ही बूंदे
गीला करती थी कदमो को
उन रास्तो को भी
जिससे होकर शहर जानी थी
आज वो निशान
आगे बढ चुके कदमो की
जमीन मांगते है
शहर स्तब्ध है !
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