Sunday, October 24, 2010

वे कंधे नहीं पहुंचे अब तक

जहाँ बैठ कर मैं रोया था
वहां अभी तक
तुम्हारे कंधे नहीं पहुंचे

मैं अक्सर टाल जाता हूँ
वहां से गुजरना,
वहां बैठ कर सुबकता हुआ मैं
तेज कर देता है अपना रोना
मुझे देखते हीं

पर अक्सर नहीं भी टाल पाता
और ये देखने पहुँच हीं जाता हूँ
कि शायद तुम्हारे कंधे पहुँच गए हों अब

मैं जानता हूँ
कहाँ होंगे तुम्हारे कंधे अभी
और अगर पहुंचूं वहां मैं
तो तुम रोक न पाओ और बढ़ा दो उन्हें
पर जाने कौन है
जो जिद पे अड़ा है कि
वे कंधे वहां क्यूँ नहीं पहुंचे अभी तक
जहाँ बैठ कर मैं रोया था


________

16 comments:

उस्ताद जी said...

6.5/10

उत्कृष्ट रचना
आपको पढना सुकून भरा लगा
जैसे-जैसे नए-नए ब्लॉग तक पहुँच रहा हूँ हैरत बढती जा रही है. एक से एक प्रतिभाशाली रचनाकार/लेखक यहाँ मौजूद हैं. फुरसत मिलते ही आपकी पिछली रचनाएं भी पढना चाहूँगा.

प्रवीण पाण्डेय said...

उन चुभते छिपाये गये भावों को न बताना पुरुष को गर्व और ग्लानि दोनों ही देता है।

Unknown said...

वाह
वाह
वाह

sonal said...

wow great ...

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

bahut hi sundar!

संजय भास्‍कर said...

Beautiful as always.
It is pleasure reading your poems.

संध्या आर्य said...

नींद की लम्बी और गहरी सांसे
उतर गयी थी
ख्वाबो मे

ली गयी सांसो मे
जहाँ नींद आने से पहले
कुछ मासूम नन्ही उंगलियो ने
पकड लिये थे कंधो को

जागते सपनो मे
नींद का गहरा होना
आसमान पर पहुंच कर
तारो को छू लेने जैसा है

कंधो और आंखो के
बीच की दूरी
महसूस लिये जाने से पूरी होती है !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुन्दर रचना!
--
मंगलवार के साप्ताहिक काव्य मंच पर इसकी चर्चा लगा दी है!
http://charchamanch.blogspot.com/

Parul kanani said...

beautiful!

shikha varshney said...

कितनी खूबसूरत शिकायत है.

Alpana Verma said...

बहुत ही अच्छी कविता लगी.

Udan Tashtari said...

क्या बात है..वाह!

संध्या आर्य said...

ख्वाब नन्ही उंगलियो सी
होती है मासूम
जब भाव शुन्य काली
रातो से गुजरती है
जिंदगी

राते घुप अंधेरो से भरी
जिसमे अपने ही पैर
उलझने लगने लगे
चलते वक्त

चोट से आहत मन
दूर कही दरियाओ मे
गोते लगाये
और सिपियो से भी
दर्द के मोती ही मिले
.
जिन्हे टांकते जाये
धडकनो पर
इंतजार मे नन्ही उंगलियो की
आये और थाम ले
दर्द से सजे
धडकनो के कंधो को

यह सच है की दर्द का
बोझ जब बढ जाये
धडकनो के कंधो पर
तब नन्ही उंगलियो का सहारा
एकमात्र होता है !

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरती से की गयी शिकायत

M VERMA said...

बहुत खूब
जिस संजीदगी से आप अपने एहसास को पिरोते हैं क्या कहने

संध्या आर्य said...

बढ गये कदमो के
पीछे छूटे निशान का
हिसाब
कलेजे मे चुभे कील

गाँव की पगडंडी पर
पडे कदम
जो कच्चे रास्तो के
पक्के निशान थे

जिसपर चलकर ही
उसे शहर मे आना था
और वह गाँव जहाँ
हर सुबह ओंस की नन्ही बूंदे
गीला करती थी कदमो को
उन रास्तो को भी
जिससे होकर शहर जानी थी

आज वो निशान
आगे बढ चुके कदमो की
जमीन मांगते है
शहर स्तब्ध है !