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Sunday, March 21, 2010

उल्के

आजकल
ये तारा
टिमटिमाता रहता है अकेला

अभी कुछ रोज पहले तक
देखता था इसे
चाँद के बहुत क़रीब

उसकी
मुलायम चाँदनी में नहाते हुए

डर है
चाँद जब तक लौट कर आए
ये तारा
कहीं उल्के में न बदल जाए

Friday, February 12, 2010

फैशन, मैं और मेरा डर

पुरानापन फैशन में था
पुरानी हवेलियाँ और किले
नए तरीके से पुराने बनाये रखे जाते थे,
उजाड़-झंखाड़ हो चुकी इमारतों पर
लाखो डॉलर खर्च करके
उनके नवीकरण के दौरान
उनका पुरानापन बचा लिया जाता था

नए लोगों में पुरानी चीजों के लिए बड़ा लगाव था
मगर सिर्फ चीजों में
पुराने लोगों में से उन्हें 'बास' आती थी


अमीर लोगों के बीच
गरीब लगने का फैशन था
वे फटी और घिसी हुई जींस ऊँचे दामों में खरीदते थे
और गरीब होने का अमीर सुख उठाते थे
वे वर्तमान में हीं 'एंटिक' हो जाने के प्रयास में थे
इसलिए अक्सर पुराने 'स्टाइल' में नजर आते थे

फैशन के दीवाने लोग
इस बात की बहुत अधिक फिक्र करते थे
कि वे बेफिक्र दिखें
वे 'रिंकल' वाले कपडे खरीदते थे,
बेतरतीब बाल रखते थे
और उनके बीच 'प्रेस' न करने का फैशन था
इसी तरह वे कमर से बहती हुई पैंट पहनते थे
मगर अक्सर
इंसानियत के नाले में बहते जाने के बारे में वे बेखबर होते थे

शो को रियल बनाने का फैशन था
रियलिटी शो में भावुकता के 'सीन' लिखे और फिल्माए जाते थे
वहाँ बहुत अदबी लोग, बेअदबी पे उतर आते थे
कुछ यूँ हँसते थे कि समाज की नब्ज हिल जाती थी
उनमे से कुछ यूँ रो पड़ते थे
जैसे उन्हें पता हीं न हो
कि भारत की एक तिहाई आबादी
इतने तरह के दर्दों में होती है
कि मुश्किल से हीं कभी रो पाती है
दरअसल भावुक होना फैशन में था
और वे डरे हुए थे कि कहीं उनके पास बैठा व्यक्ति
उससे भी छोटी बात पे उससे ज्यादा न रो दे

इन सबको देखता कवि सोंचता है
कि एक घर जो वास्तव में बहुत पुराना है
कि एक आदमी जिसकी जींस वास्तव में फटी है
कि एक आदमी जिसके कपडे वास्तव में मुचड़े हैं
और बाल बिखरे हैं
और जो दर्द से रो रहा है
वो इनके समकक्ष क्यों खड़ा नहीं है

हालांकि कवि कों ये डर भी है
कि कहीं ऐसा न हो
कि ऐसा सोंचना फैशन में हो
और इसलिए वो सोंचता हो...