Thursday, October 29, 2009

हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए !

लोग किनारे की रेत पे
जो अपने दर्द छोड़ देते है
वो समेटता रहता है
अपनी लहरें फैला-फैला कर
हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए

जब भी कोई उदास हो कर
आ जाता है उसके करीब
वो अपनी लहरें खोल देता है
और खींच कर भींच लेता है अपने विशाल आगोश में
ताकि जज्ब कर सके आदमी के भीतर का
तमाम उफान

कभी जब मैं रोना चाहता था
पर आंसू पास नहीं होते थे
तो उसने आँखों कों आंसू दिए थे
और घंटों तक
अपने किनारे का कन्धा दिया था

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...

और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!

40 comments:

rashmi ravija said...

पता नहीं, नहीं कितनों के दुःख समेटे हैं इस समंदर ने....कितने ही अशांत दिलों को तसल्ली दी है..कितने लोगों ने अपना दुःख बांटा है इस से..इसे महानगर में ही रहने दें..क्यूंकि महानगर में समंदर से बढ़ कर कोई दोस्त नहीं या समंदर ही शायद अकेला दोस्त है.

डिम्पल मल्होत्रा said...

aaj maloom hua ki ye aansu namkeen kyun hai...smunder ka namak hai unme...

विनोद कुमार पांडेय said...

Behad khubsurat najm...samandar ke jazbaat ko aapne behtareen dhang se kavita me piroya hai...

om ji aapke vichar aur bhavnaon ka jawab nahi hai kitane khubsurat bhav vyakt kar dete hai bas char lainon me...bahut badhiya kavita aur ek prhaar bhi mahanagar me rahane wale insaanon par...bahut bahut dhanywaad..

gazalkbahane said...

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...

और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!
वाकई-नगर-महानगरों को समंदर की जरूरत ज्यादा है अच्छी अभिव्यक्ति पर बधाई

डिम्पल मल्होत्रा said...

mhanagar shayd aap hai..apki kavitay hai or smunder.....ma jane khun kaleen tak aa ke lot jata hai...apni aseem jaroorato ke sath...

निर्मला कपिला said...

मुझे तो लगता हओ कि इस समुद्र से भी बडा भावनाओं का समुद्र आपके दिल मे है। और उसमे से कुछ लहरें शब्दों के रूप मे किनारे पर आ कर शब्द बिखेर देती हैं बहुत भावमय रचना है बधाई शुभकामनायें

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं !
बहुत सुन्दर !

Unknown said...

वाह ओमजी !
बहुत खूब.............

महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...

और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!

क्या क्लाइमैक्स है !

बधाई !

सदा said...

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

भंगार said...

बहुत सुंदर सोच है आप की

Ambarish said...

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...
और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!
bahut acche bhaav hain.. aur bilkul utaar diye aapne...

zamano pahle duniya ka,
har bund paani ka tha pyaara...
maanav jati ke dukh ke aansoo,
peekar ho gaya samandar khaara....

दिगम्बर नासवा said...

सागर की तरह विशाल ह्रदय .............. किसी अनजान प्रेमी के ही पास हो सकता है ........ वो हर दर्द को सिमेट सकता है अपने अन्दर ..... शायद सागर का दिल भी तो इश्क की पानी से बना है .........उसकी लहरें भी तो निश्छल अनवरत प्रेम करती है, किसी को मिलने को बेताब किनारे पर आती रहती हैं ...........
बहूत ही दिलकश लिखा है ओम जी .......... आपका लिखा पढ़ कर सोचता रहता हूँ की कोन से जज़्बात है जो आपके दिल में उठते हैं और आप इतना खूबसूरत लिख लेते हैं ............

रश्मि प्रभा... said...

meri maa ne likha hai" agar tumne kabhi nadi ko pralap karte suna ho to main chahungi tumse milna......"
aapne samandar ko lahron ke madhya nam hote dekha, yaani zindagi kee barikiyaan aapki kalam ka srot hain.....

vandana gupta said...

andar gahre utar gayi............bahut sundar.

kitne dino ke pyase honge ,yaron socho to
shabnam ka katra bhi jinko dariya lagta hai

kuch aisa haal hai na is nazm ka.uff!

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर भाव है। बहुत बढ़िया रचन है ओम जी।बधाई।

आनन्द वर्धन ओझा said...

मानवीय पीडा के वृहत्तर कोणों को समेटती हुई एक उदारमना कविता !
बधाई ओम भाई !!
सप्रीत--आ.

M VERMA said...

हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए
समुन्दर नम होते हुए देखना और उस नमी को शब्द देकर बाँट देना आपके ही लेखनी की जद में है.
हद से भी ज्यादा खूबसूरत रचना.

नीरज गोस्वामी said...

आप की शैली...आपके भाव...आपके शब्द...सब अद्भुत होते हैं ...इस रचना की तरह...वाह ओम जी वाह...
नीरज

दर्पण साह said...

"जब भी कोई उदास हो कर
आ जाता है उसके करीब
वो अपनी लहरें खोल देता है
और खींच कर भींच लेता है अपने विशाल आगोश में
ताकि जज्ब कर सके आदमी के भीतर का
तमाम उफान"
ye line behterin lagi....
kal ki charcha hindi chitthon kizarror dekhiyega !!

अभिषेक आर्जव said...

"लोग किनारे की रेत पे
जो अपने दर्द छोड़ देते है
वो समेटता रहता है
अपनी लहरें फैला-फैला कर"
उठती गिरती लहरों को इस रूप में देखना अच्छा लगा ! उठती गिरती लहरों को इस रूप में देखना अच्छा लगा ! इसीलिए तो वो समंदर है की वो जज्ब कर सकता है अनेक तूफान व ग़मों के अनगिनत पठार............

Vinay Kumar Vaidya said...

Omji,
Is behad khoobsoorat aur hridaysparshee kaviaa ke liye aapko badhaaee!

Vinay Kumar Vaidya said...

sachmuch, yah kavitaa bhee samandar kee tarah gahan hai,

ज्योति सिंह said...

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...
और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!zabardast panktiyaan hai saath hi poori rachna laazwaab hai ,hridyasparshi

mehek said...

samandar ki gehrai si gahan,magar sunder rachana,badhai

Apanatva said...

bahut sunder rachana itanee gahraihai bhavo kee .
aanand aa gaya pad kar. bahut bahut badhai .

अनिल कान्त said...

वाह क्या कह दिया आपने !!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

bahut sunder bhaav ke saath likhi gayi ek sashakt rachna....

अपूर्व said...

फिर एक दिलकश कविता..मगर दार्शनिकता का रंग लिये..यह कविता आपने जैसे समंदर की पूरी थाह पा कर लिखी है..और हर बार कहीं न कहीं चमत्कृत कर देते हैं आप..अपनी पोएटिक नजर से..जैसे
हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए
और यह तो सितम हो गया

और घंटों तक
अपने किनारे का कन्धा दिया था

मेरे खयाल से दर्द की फ़सल हर जगह बराबर ही होगी..चाहे नगर हो या गाँव..हाँ मगर शहर के शांपिंग माल्स मे दर्द बांट लेने वाले कंधे नही बिकते!!
..अब आज तो रात भर अपना सर किनारों पर पटकेगा समंदर..आपने जो लिख इतना खूबसूरत दिया है!!!

सागर said...

कब लिखना सीखेंगे हम लोग कविता ? खुद जब लिखते हैं तो एडिट क्यों नहीं कर पाते ? दूसरो के मुआमलों में ही दिमाग क्यों कर चलता है ? कुछ शब्द अवांछित हैं... रेसिपी थोडी और टेस्टी हो सकती थी क्योंकि कंटेंट बहुत शानदार है इतना की ख्याल का एक धागा आपने पकड़कर समंदर से जोड़ते हुए शहर लाया फिर दूर कर उसे उसकी सीमा में भी बांध दिया...

थोडा दर्द इधर भी पास कर दिया करें... बिलकुल इस तरह की कविता कभी कभी लिखने की ख्वाहिश होती है... यह आपकी ही पिछली कई रचनाओं पर भरी पड़ रही है... मेरे ब्लॉग लिस्ट में अनुनाद के बाद आज की दूसरी बेहतरीन कविता...

Yogesh Verma Swapn said...

umda abhivyakti/behatareen rachna. om ji badhai.

kshama said...

कविता पढ़ते पढ़ते मुझे दादा याद आ गए ...माँ याद आ गयी ...पता नही कितने दर्द सीने में समेट उन्हों ने मुझे बिखरने से बचा ने यत्न किया ..दोनों की समंदर -सी आँखें याद दिला दी आपने ...जहाँ का दर्द समेटे हुए ..

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...
और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!
बहुत खूबसूरत और बेहद सम्वेदन्शील कविता।ओम जी हार्दिक बधाई स्वीकरें।
हेमन्त

Udan Tashtari said...

वाकई डुबो दिया समंदर में:


मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...

और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

यकीन जानें, आपकी कल्पना मन में ईर्ष्या के भाव सी जगा जाती है।
वाकई, बहुत सुंदर लिखते हैं आप।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

गौतम राजऋषि said...

यूं तो हर बार शब्द कम पड़ते देखा है आपकी कविता के लिये, लेकिन आज तो कम नहीं, एक भी शब्द नहीं मिल रहा।

बस मूक हूँ कवि की सोच पर, सोच को शब्दों में ढ़ालने की अप्रतिम कला पर, कला की उत्कृष्ठता पर, उत्कृष्ठता के चरमोत्कर्ष पर...

विवेक said...

जज़्बात का समंदर उड़ेल दिया है आपने...अद्भुत

कंचन सिंह चौहान said...

एक लंबी सी आह निकलती है आपकी कविता पढ़ने के बाद बस....!

Kulwant Happy said...

aapki har post read karta hoon auron ki bhi par comment access na hone se comment nahin de sakta...mahanagaron ka dard to bahut hai si kahaa appne

रंजना said...

Bada hi sateek bimb prayog kiya hai aapne....

Bahut hi bhaavpoorn aur sundar rachna...padhwane ke liye aabhar.

shikha varshney said...

Gehri .bhavyukt,sunder rachna.