सूरज जल्दी-जल्दी डूब कर
शाम कर दिया करेगा
और शाम अपने तन्हाई वाले हाथ रखने के लिए
मेरे कंधे नही तलाशा करेगी
तमाम खीझ और उब के बावजूद
आत्मा बार-बार लौटा करेगी
वासना से लदी उसी सूजन वाले शरीर में
जिसे घसीटते रहने में
अब कोई उत्तेजना बाकी नही होगी
बिना तलब के हीं
मुझे जला लिया करेगा
थोडी-थोडी देर पे एक लंबा सिगरेट
और पी-पी कर मेरे ख़त्म होने का
इंतज़ार किया करेगा
रात पे कान रख के
मैं सहलाना चाहूँगा झींगुरों की आवाजें
और ख़राब होती टियुबलाईट की आवाज भी
मेरे मौन में कोई छेड़ नही कर पाएगी
आँखे जाग कर नींद देखने की
हर रोज कोशिश करेगा
पर कोई पागल सा सपना
उन्हें अफीम दे कर सुला दिया करेगा हर रोज
तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है
और काम चला लेती है
बिना तेरे स्पर्शों के
पर जब भी सोंचता हूँ कि ये जो दर्द है हिज्र का
वो भी चला गया तो ...
तो ऐसे हीं ख्याल आते हैं...
और ये दर्द है कि रोज कम होता जा रहा है !!
24 comments:
तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है
और काम चला लेती है
बिना तेरे स्पर्शों के ...
बहुत सुंदर पंक्तियाँ..... दिल को छू गयीं...... आपकी रचनाएँ..... दिल के अन्दर तक छू लेतीं हैं......
बहुत दिन बाद नज़र आये आप मौन के खाली घर से दूर रहे हम भी तभी शायद खुद से भी दूर रहे। आपकी रचना कमाल की है
तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है
और काम चला लेती है
बिना तेरे स्पर्शों के ...
पता नहीं कैसे एक संवेदना के लिये इतने शब्द बुन कर इसमे ऐसा दर्द डाल देते हैं कि दिल को छू जाती है रचना बहुत बहुत बधाई नया साल मुबारक हो। आशीर्वाद
क्या बात है ओम भाई , आये तो आये दुरुस्त आये , बहुत खुब ।
वाह बहुत सुंदर.
Now you are writing something original !
वाह बहुत सुंदर.
नया साल मुबारक हो।
बस देखिएगा ये ये दर्द भी कम हो गया तो जीना और भी मुश्किल हो जायेगा ओम जी ....इसे संभाले रखियेगा .......गज़ब की फीलिंग्स .....!!
boht sundar om ji.
आखें जाग कर नींद देखने.. से आगे तो हर पंक्ति गजब की है॥ओम आर्य जी
एनडी तिवारी के नाम खुला
तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है
और काम चला लेती है
बिना तेरे स्पर्शों के ...
कमाल की बात लिखी है ...... ये दिल ही तो है जो मानता नही किसी भी बात को ......... और अगर दिल कबूल कर ले तो फिर आसान हो जाता है जीवन ........ आसान हो जाती है राह ......... दर्द भी कम होने लगता है ......... हमेशा की तरह लाजवाब ओम जी .........
ओम जी ,
तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है और काम चला लेती है बिना तेरे स्पर्शों के
पर जब भी सोंचता हूँ कि ये जो दर्द है हिज्र का
वो भी चला गया तो ...
तो ऐसे हीं ख्याल आते हैं...
और ये दर्द है कि रोज कम होता जा रहा है !!
बहुत ही संवेदनशील रचना..एहसासों को खूबसूरत शब्दों में बांधा है.... बधाई
नव वर्ष की शुभकामनायें
आनन्द आ गया पढ़कर.
पर जब भी सोंचता हूँ कि ये जो दर्द है हिज्र का
वो भी चला गया तो ...
दर्द का सम्बन्ध तो आस से है. निराश व्यक्ति को दर्द नही होता. दर्द के कम होने का यह दर्द वाकई मार्मिक है. हथेलियाँ छुए न छुए इस रचना ने तो छू लिया.
भावुक मन के सुंदर उदगार
पहले प्रेम था
फिर जिस्म बनी
अब एक बिस्तर बन कर कोने में पड़ा रहता है
जिसे मैं
वक़्त-बेवक्त पहन लेता हूँ... ओढ़ लेता हूँ, बिछा लेता हूँ....
हमेशा की तरह इस बार भी बेहतरीन रचना ।
बहुत दिनों के आवारा आचरण के बाद कल से ब्लॉग देखे हैं, मगर आपकी इस कविता का आनंद पहले भी ले चुका हूँ तब मुझे लगा कि कविता पर काम करना बाकी है, और शायद आपकी व्यस्तता का परिणाम है तो बिना कुछ कहे चला गया था. आज अभी इसे फिर से देखा है. आपकी प्रकृति के अनुकूल ही है कविता, बहुत एब्सट्रेक्ट और नए बिम्बों के साथ.
यह दर्द भी जीना सीखाता है...संभाले रखीये...खुद में में बहा ले जाने का सामर्थ्य रखती हैं आप की रचनाएँ.
पर जब भी सोंचता हूँ कि ये जो दर्द है हिज्र का
वो भी चला गया तो ...
तो ऐसे हीं ख्याल आते हैं...
और ये दर्द है कि रोज कम होता जा रहा है !!
सुन्दर अति सुन्दर ...
sunder abhivyakti. badhaai.
इन बिम्बों में उलझ कर मन है कि कहाँ-कहाँ भटक आया है....
वर्ष नव-हर्ष नव-उत्कर्ष नव
-नव वर्ष, २०१० के लिए अभिमंत्रित शुभकामनाओं सहित ,
डॉ मनोज मिश्र
"ये दर्द रोज कम होता जा रहा है !!"kanjusi se kharach kare to kabhi kam na hoga...
kuchh roohen...................lagaataar.
bahut umda abhivyakti. wah.
Post a Comment