देह के बाहर जाकर
एक बेचैनी
चहलकदमी करती है देर रात तक,
शरीर में जरा दम सा घुटता है
बाहर बरामदे में
बिना बांह वाली एक कुर्सी है
जिस पे वो बैठ जाती है जरा-जरा देर चल कर
वहां एक सिगरेट लेने लगती है धुंआ अपने भीतर
शरीर से खींच-खींच कर
अन्दर धुंआ है अभी भी बहुत सारा और
बाहर धुंध पसरी है पलकों के क्षितिज पर,
परन्तु दृढ़ता से यह कहा जा सकता है कि
एक ख्वाब अभी भी टिमटिमा रहा होगा वहां
हालांकि वह बिना चाँद के होगा
पर उसके लिए यह दृढ़ होने का नही वरन कांपने का वक्त है
अचानक से नींद खींच कर उतार जो दी गई है
वक्त को काट दिया गया है
पर अभी भी वो बचा हुआ है
और जितना भी अब बचा है
शायद उसे और नही काटा जा सकता
तुम्हें गर ये मालुम होता कि
रात कितनी बची हुई है
और कि वक्त को अब और काटा नही जा सकता
तो तुम कभी ये नही कहती
कि रातों को बातें नही किया करेंगे हम
21 comments:
नाम सिर्फ एक लूँगा, पर कहना सभी को चाहता हूँ कि अजीब रिश्ते में जोड़ा है आप सबने...यह पूरा प्रकरण मुझे कई चीज दे गया...जो अमूल्य है.
नाम ले रहा हूँ आनंद वर्धन ओझा जी का...उनके इस कमेन्ट के लिए...
भाई,
रात के सवा से ज्यादा हो गए हैं... और आप याद आ रहे हैं... क्या करूँ, कुछ ज्यादा हो गई है; आपको ही छेड़ना अच्छा लगता है...
ओम भाई का मौन लम्बा हो गया है... कुछ तो लिखिए कि जीना सहल हो...
आपकी कलम से ये फलसफा भी खूब रहा :
'कलम ने सनम को विषबुझी नोक दी है,
अभावों ने भावों के जिगर में छुरी भोंक दी है !'
क्या बात है... !
सप्रीत--आनंद.
तुम्हें गर ये मालुम होता कि
रात कितनी बची हुई है
और कि वक्त को अब और काटा नही जा सकता
तो तुम कभी ये नही कहती
कि रातों को बातें नही किया करेंगे हम...
बहुत सुंदर पंक्तियाँ..... हैं...... क्या कहूँ....अब ...आप अपनी हर रचना में निशब्द कर देते हैं...
सरल शब्दों में गहरी वेदना की सूक्ष्म अभिव्यक्ति !!
bahut lambe samay baad ye komal aur masoom shabd padhne ko mile to dil khush ho gaya
बहुत खूब भाई , बेहद भावपूर्ण रचना ।
इतना लम्बा अन्तराल?
बहुत भावपूर्ण !!
aapko jaldi jaldi padhane ki aadat ho gayi thi aapki sundar abhivyakti jo mujhe likhane ka aatmvishwas deti thi wah thodi dhimi pad gai thi ab fir se ek kiran jagi hai..
bahut sundar bhav ek baar fir sundar kavita..bahut bahut badhai..on ji
देह के बाहर जाकर
एक बेचैनी
चहलकदमी करती है देर रात तक,
शरीर में जरा दम सा घुटता है
देह् मे दम घुटे तो देह से बाहर जाकर चहलकदमी कर लेना ही श्रेयस्कर है
पर यह चहलकदमी थोडे समय तक ही ठीक है
बेहतरीन रचना
इसीलिये हमें तन्हाई और रातों से डर लगता है, और सिगरेट और उसका धुआँ तो बस...
बहुत अच्छी रचना है।
इसीलिये हमें तन्हाई और रातों से डर लगता है, और सिगरेट और उसका धुआँ तो बस...
बहुत अच्छी रचना है।
तुझे गर पता होता रात कितनी बाकी है तो यह सवाल नहीं करती ...
जिन्दगी को लेकर भी तो यही नजरिया है ....गर पता हो कि जिन्दगी कितनी बाकी है ...तो भी कभी बात नहीं करेंगे (दिन -रात )का सवाल नहीं लाती .....लम्बे अंतराल के बाद आई कविता ने बीच के खामोश वक़्त को गहरी मात दे दी ....!!
बहुत शानदार। आपकी इस रात को जिन्दगी कहूंगा, जिसका पता नहीं कि कितना बाकी है।
औरत का दर्द-ए-बयां
"हैप्पी अभिनंदन" में राजीव तनेजा
कैमरॉन की हसीं दुनिया 'अवतार'
om ji
bahut dino baad aaye magar bahut hi dil ko chhoo lene wali nazm laaye.........kya kahun iske bare mein ......nishabd hun.
kabhi zindagi par bhi dastak dijiyega.
achhi kavita
..badhayi
अन्दर धुंआ है अभी भी बहुत सारा और
बाहर धुंध पसरी है पलकों के क्षितिज पर,
परन्तु दृढ़ता से यह कहा जा सकता है कि
एक ख्वाब अभी भी टिमटिमा रहा होगा वहां
हालांकि वह बिना चाँद के होगा ....
बहुत अच्छा लगा आपको वापस देख कर ........... उमीद है ऐसी बहुत सी अनुपान रचनाओं से मुलाकात जारी रहेगी ......... ख्वाब टिमटिमाते रहना चाहिए ........ ख्वाब न हों तो जीवन कैसा .....
बड़ा संयत दिमाग है... कितने एंगल से जांचे हैं उसको ?
पवेलियन में चिल्ला रहे हैं : ओम इस बैक, थे रिटर्न ऑफ़ ओम आर्य..
कमेंटेटर भी कह रहा है : on the mark
तंहाई , वेदना , दिल को छूने वाली रचना के साथ आप आये , अच्छा लगा
आपका वापस फार्म में आना सकून है एक बड़ा-सा।
बाकि ओझा जी की टिप्पणी तो उफ़्फ़्फ़्फ़-हाय रेsss जैसी है।
आपका हक है इस स्नेह पर...
आपकी ये फॉर्म मुझे ज्यादा जंचती है ....यूं भी इसकी शुरुआत मेरे लिए ...."बाहर बरामदे से होती है ".लगता है ओरिजनल ओम आर्य ऐसे ही है ....एक ओर बेहतरीन !
boht badhiya om ji..
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