रात के इस पहर में
जिसके बारे में कोई विशेषण मुझे अभी नहीं सूझ रहा है
और ना हीं बहुत स्पष्ट है कि
कविता के शुरुआत में इसे कितनी अहमियत दी जानी चाहिए
और कितना विशेषण
क्यूंकि हमेशा की तरह इस कविता में भी
मुझे तुम्हारे बारे में कहना है
या फिर तुम्हारे बिना मेरे बारे में
फिर भी अगर बयान करें तो
यह कहा जा सकता है कि इस पहर में
शराब पीकर नालियों में या सड़क के किनारे
अचेतन हालत में पड़े होंगे कुछ लोग
और हॉस्टल के कुछ आवारा लड़के
सिगरेट की तलब में
बाइक पे सवार होकर
आ रहे होंगे रेलवे स्टेशनों की तरफ
और कुछ बेघर मजदूर किसी पुल की फूटपाथ पे
पतली कम्बलों के नीचे बार बार करवट बदलते होंगे
इस पहर में
तुम्हारे बारे में कुछ कहने के लिए
बहुत सोंचना पड़ रहा है
क्यूंकि तुमसे बिछड़ने के इतने लम्बे समय बाद
मुझे जरा भी भान नहीं कि
रात क्या रखती है तुम्हारे बिस्तर पे
जिसपे तुम सोती हो
और इस वक्त तुम नींद में होती हो या ख्वाब में
या अपने पति के प्रेम-पाश में
या फिर मुझे याद करती हुई जगी होती हो
अपने बारे में कहूं तो
मैं एक लगभग सुनसान प्लेटफार्म के
पत्थर की ठंढी बेंच पे
अपनी छाती पे दोनों हाथ बांधे
ये सोंचने के लिए बाध्य हूँ कि
इन बंधे हुए बाहों के बीच तुम्हारा होना
एक जरूरी बात थी जो कि हो नहीं पायी
मैं अक्सर आ कर बैठता रहा हूँ
प्लेटफार्म की इस ठंढी बेंच पे
क्यूंकि मुझे लगता रहा है कि
खाली प्लेटफार्म पे किसी दिन एक घर मुझे पा लेगा
और उस वक्त ऐसा नही हो कि उसे मुझे ले जाना हो
और कोई ट्रेन नही हो
मुझे ये करीब-करीब पता है कि
प्लेटफार्म के बिल्कुल उस तरफ़ एक जर्जर हो चुकी संरचना है
जिस पे ' abondoned ' लिखा है
मैं वही हूँ
पर फ़िर भी जाने क्यूँ इंतज़ार है कि
तुम मेरे छाती के सफ़ेद बालों में
अपनी उँगलियाँ घुमाते हुए प्यार करने एक दिन अवश्य आओगी
26 comments:
सारगर्भित शब्दों के साथ बहुत खूबसूरत कविता.....
मुझे ये करीब-करीब पता है कि
प्लेटफार्म के बिल्कुल उस तरफ़ एक जर्जर हो चुकी संरचना है
जिस पे ' abondoned ' लिखा है
मैं वही हूँ
पर फ़िर भी जाने क्यूँ इंतज़ार है कि
तुम मेरे छाती के सफ़ेद बालों में
अपनी उँगलियाँ घुमाते हुए प्यार करने एक दिन अवश्य आओगी
दस्तावेज़ है ......... जिंदगी का, दिल में उठते अरमानों का .........
कहीं शुरुआत और कहीं उम्र भर का इंतज़ार ........ अनवरत क्रम जीवन का चलता रहता है ....... प्रतीक्षा बढ़ती जाती है ......
बहुत ही गहरे एहसास में डूबी रचना है .........
वाह बहुत सुंदर !!
gehre ehsaas liye sunder kavita.
मुझे ये करीब-करीब पता है कि
प्लेटफार्म के बिल्कुल उस तरफ़ एक जर्जर हो चुकी संरचना है
जिस पे ' abondoned ' लिखा है
मैं वही हूँ
पर फ़िर भी जाने क्यूँ इंतज़ार है कि
तुम मेरे छाती के सफ़ेद बालों में
अपनी उँगलियाँ घुमाते हुए प्यार करने एक दिन अवश्य आओगी
behatareen abhivyakti.
भावनाओं का सागर उमर पड़ा है इस कविता में बहुत सुन्दर जी !!!!!!!!!
bahut hi khoobsuraat lagi aapki rachna...
umra ki dhalaan aur intzaar,-pyaar ise hi kahte hain
सुनसान सी एक ठंडी रात और पत्थर की वा ठंडी बैंच पर दोनों हाथ सीने पर बाँधकरके सोचने वाली तमाम बातें मुझे बहुत पसंद आयीं. आप भी ना बड़े ग़ज़ब ग़ज़ब एहसास उठा लाते हो और तमाम ऐसे शब्द बुन देते हो की सुखद एहसास होता है उन्हें पढ़कर. मान करता है उन शब्दों को हथेलियों पर रखकर उनसे बातें करूँ
डूब कर लिखी रचना.
अंतिम पैरा तो जीवन के आम अहसासों में से है.
प्रारम्भ की पंक्तियाँ अनावश्यक लगीं। क्या यह भी आप की कविता की शक्ति है?
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@ अपने बारे में कहूं तो
मैं एक लगभग सुनसान प्लेटफार्म के
पत्थर की ठंढी बेंच पे
अपनी छाती पे दोनों हाथ बांधे
ये सोंचने के लिए बाध्य हूँ कि
इन बंधे हुए बाहों के बीच तुम्हारा होना
एक जरूरी बात थी जो कि हो नहीं पायी
मैं अक्सर आ कर बैठता रहा हूँ
प्लेटफार्म की इस ठंढी बेंच पे
क्यूंकि मुझे लगता रहा है कि
खाली प्लेटफार्म पे किसी दिन एक घर मुझे पा लेगा
और उस वक्त ऐसा नही हो कि उसे मुझे ले जाना हो
और कोई ट्रेन नही हो
मुझे ये करीब-करीब पता है कि
प्लेटफार्म के बिल्कुल उस तरफ़ एक जर्जर हो चुकी संरचना है
जिस पे ' abondoned ' लिखा है
मैं वही हूँ
पर फ़िर भी जाने क्यूँ इंतज़ार है कि
तुम मेरे छाती के सफ़ेद बालों में
अपनी उँगलियाँ घुमाते हुए प्यार करने एक दिन अवश्य आओगी
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बस इतना ही रखना था। प्रगल्भ हो रहा हूँ। क्षमा करिएगा। .
..इतनी क्लांत, शांत रूमानियत उदासी और तनहाई से भरपूर! कौन कहता है कि अंत: की बातों से परिवेश को नहीं चित्रित किया जा सकता?.. इतनी सचाई! लगता है रचने वाला प्लेटफॉर्म पर अभी भी बैठा हुआ है।
उम्र से लंबा इंतज़ार...
सफ़र से लंबे रास्ते...
जय हिंद...
om ji
aaj to padhte huye laga jaise sab samne hi ghatit ho raha hai........prem ka ye swaroop .....uff!ab bhi intzaar?umra ke is mod par bhi........gahri vedna ko darshati ek safal rachna.
शराब पीकर नालियों में या सड़क के किनारे
अचेतन हालत में पड़े होंगे कुछ लोग
और हॉस्टल के कुछ आवारा लड़के
सिगरेट की तलब में
बाइक पे सवार होकर
आ रहे होंगे रेलवे स्टेशनों की तरफ
और कुछ बेघर मजदूर किसी पुल की फूटपाथ पे
पतली कम्बलों के नीचे बार बार करवट बदलते होंगे
hmmm... sach hai...
प्लेटफार्म की इस ठंढी बेंच पे
क्यूंकि मुझे लगता रहा है कि
खाली प्लेटफार्म पे किसी दिन एक घर मुझे पा लेगा
kya baat hai...
aur fir..
प्लेटफार्म के बिल्कुल उस तरफ़ एक जर्जर हो चुकी संरचना है
जिस पे ' abondoned ' लिखा है
मैं वही हूँ
पर फ़िर भी जाने क्यूँ इंतज़ार है कि
तुम मेरे छाती के सफ़ेद बालों में
अपनी उँगलियाँ घुमाते हुए प्यार करने एक दिन अवश्य आओगी
kitne hi rang is ek kavita mein... kamaal hai..
एक एसा ही सुनसान प्लेटफ़ार्म कभी हमारे लिए भी जीवन का पर्याय था जहां हम शाम को गुजरने वाली एकमात्र गाड़ी देखने जाया करते थे..
सुंदर रचना
Rachna kya,ye dilse nikli ek siski hai.....eeshwar aisa dard kiseeko na de..
ye toh sahab intaha hai intazar ki
shahid mirza shahid
बहुत खूबी से आपने इन्हें लफ़्ज़ों में बाँधा है .गहरे भाव और एहसास लिए हैं यह खुबसूरत रचना शुक्रिया
आज पहली बार आपने करवट ली है... मैं फिर से आता हूँ...
khoobsoorat abhivyakti hai ji...
बेहद ही भावमय प्रस्तुति के साथ अनुपम रचना ।
बहुत ही सुंदर एहसास और गहराई के साथ लिखी हुई आपकी ये रचना प्रशंग्सनीय है! बधाई!
Om Bhai,
Take a bow for this poem from me.
Ankur
http://gubaar-e-dil.blogspot.com
very nice....
what is the source of inspiration for this??
waah!
Sundar prikalpna hai
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