उसने कहना छोड़ दिया
और मैने भी
वो सारे शोर
जो कभी कमरे और
उनसे निकल कर बरामदे तक पहुँचते थे,
भीतर ही उमड़ने घूमड़ने लगे गुबार बनकर
पर खिड़कियाँ खुली नही किसी भी दीवार पे
और सांकलें चढी रही दरवाजों पे
हम अड़े रहे अपनी-अपनी जिद पर
हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग
पानी अलग अलग धाराओं में बह कर दूर निकल गये
आज हम सोंचते हैं
कभी हम एक साथ, एक कोने में
बैठ कर रो लेते.
24 comments:
अपने आस पास रेखाएं और दायरे खींच लेने की स्थितियों का सुंदर काव्य.
apne aap mein ras gholte bhav. sundar hain.
Waaaaaaaaaaaaaah bhai waah..
Bahut sundar.
हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग
_____________kya baat hai !
_____________waah waah waah !
kavita ki komalta ko poorna paraakram k saath pradarshit karne me safalta par aapko
BHAAVBHINI BADHAAIYAN....
एक सुन्दर एहसास देती बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।
सुन्दर कविता ।आभार ।
पानी अलग अलग धाराओं में बह कर दूर निकल गये, बहुत ही गहरे भावों को व्यक्त करती आपकी यह रचना, बधाई !
लाजवाब लिखा है ओम जी आपने...वाह...मेरी बधाई स्वीकारें....
नीरज
गुलज़ार की एक नज़्म याद आ गयी ओम जी....
आप लिख ही नहीं रहें हैं, सशक्त लिख रहे हैं. आपकी हर पोस्ट नए जज्बे के साथ पाठकों का स्वागत कर रही है...यही क्रम बनायें रखें...बधाई !!
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"शब्द-शिखर" पर देखें- "सावन के बहाने कजरी के बोल"...और आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाएं !!
भावावेश में लिये गये फ़ैसले, और फ़िर उन पर पछतावा, नई कविता की विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं आप.बधाई.
सुन्दर रचनात्मकता!
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तख़लीक़-ए-नज़र
हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग
और ऐसे क्षणों मे ही खो जाते हैण जीने के कई बडे बडे पल बहुत सुन्दरता से मन के भावों को व्यक्त किया है बहुत बडिया शुभकामनायें
हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग
और ऐसे क्षणों मे ही खो जाते हैण जीने के कई बडे बडे पल बहुत सुन्दरता से मन के भावों को व्यक्त किया है बहुत बडिया शुभकामनायें
अपने भावः को क्या सुंदर बोल दिए है. बधाई.
आप जो भी लिखते हैं, दिल से लिखते हैं। और सहज ही दूसरों के दिल को छू लेते हैं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
atyanta sanvedanshil
ओम जी,
सार्थक कविता, लाजवाब।
मौन के खाली घर में वो जगह ना हो जहाँ बैठ के रोया जा सके, खुशियों का अंबार हो, आपसी प्यार हो।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
BAHUT HI MARMSPARSI ....... PRIPAKWA BHAWANA KA EK SAARTHAK PRASTUTI YAHI TO AAPKA ANOKHA ANDAAJ HAI.......
DARD BHI HAI OUR YAADE BHI .........PAR SALIKE SE ...............DERO SHUBHKAMANAYE
अनोखे माध्यम से कही है असली बात....... कभी कभी इंसान अकेला ही निकल जाता है .......... बहुत दूर हो जाता है और बाद में पछताता है बैठा रहता है ये सोच कर की बहुत देर हो गयी...... लाजवाब तरीके से अभिव्यक्त किया है गहरी सोच को ......
यार यह कमाल है... छोटी सी बात, गहरे मायने लिए हुए... छपरा के हो, त राऊवा के भोजपूरी त...
बुझायल की ना...
सुन्दर कविता
"हिन्दीकुंज"
भावनाएं उडेल दी हैं आपने... अच्छी अभिव्यक्ति.
बहुत गहराई से कही गई सुन्दर रचना व रचनाकार को मेरा सलाम बहुत खूब
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