Thursday, June 25, 2009

खिड़कियाँ खुली नही किसी भी दीवार पे

उसने कहना छोड़ दिया
और मैने भी

वो सारे शोर
जो कभी कमरे और
उनसे निकल कर बरामदे तक पहुँचते थे,
भीतर ही उमड़ने घूमड़ने लगे गुबार बनकर

पर खिड़कियाँ खुली नही किसी भी दीवार पे
और सांकलें चढी रही दरवाजों पे
हम अड़े रहे अपनी-अपनी जिद पर

हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग

पानी अलग अलग धाराओं में बह कर दूर निकल गये

आज हम सोंचते हैं
कभी हम एक साथ, एक कोने में
बैठ कर रो लेते.

24 comments:

sanjay vyas said...

अपने आस पास रेखाएं और दायरे खींच लेने की स्थितियों का सुंदर काव्य.

Prem Farukhabadi said...

apne aap mein ras gholte bhav. sundar hain.

जयंत - समर शेष said...

Waaaaaaaaaaaaaah bhai waah..
Bahut sundar.

Unknown said...

हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग
_____________kya baat hai !
_____________waah waah waah !

kavita ki komalta ko poorna paraakram k saath pradarshit karne me safalta par aapko
BHAAVBHINI BADHAAIYAN....

परमजीत सिहँ बाली said...

एक सुन्दर एहसास देती बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।

Himanshu Pandey said...

सुन्दर कविता ।आभार ।

सदा said...

पानी अलग अलग धाराओं में बह कर दूर निकल गये, बहुत ही गहरे भावों को व्‍यक्‍त करती आपकी यह रचना, बधाई !

नीरज गोस्वामी said...

लाजवाब लिखा है ओम जी आपने...वाह...मेरी बधाई स्वीकारें....
नीरज

डॉ .अनुराग said...

गुलज़ार की एक नज़्म याद आ गयी ओम जी....

Akanksha Yadav said...

आप लिख ही नहीं रहें हैं, सशक्त लिख रहे हैं. आपकी हर पोस्ट नए जज्बे के साथ पाठकों का स्वागत कर रही है...यही क्रम बनायें रखें...बधाई !!
___________________________________
"शब्द-शिखर" पर देखें- "सावन के बहाने कजरी के बोल"...और आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाएं !!

वन्दना अवस्थी दुबे said...

भावावेश में लिये गये फ़ैसले, और फ़िर उन पर पछतावा, नई कविता की विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं आप.बधाई.

Vinay said...

सुन्दर रचनात्मकता!

---
तख़लीक़-ए-नज़र

निर्मला कपिला said...

हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग
और ऐसे क्षणों मे ही खो जाते हैण जीने के कई बडे बडे पल बहुत सुन्दरता से मन के भावों को व्यक्त किया है बहुत बडिया शुभकामनायें

निर्मला कपिला said...

हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग
और ऐसे क्षणों मे ही खो जाते हैण जीने के कई बडे बडे पल बहुत सुन्दरता से मन के भावों को व्यक्त किया है बहुत बडिया शुभकामनायें

surya goyal said...

अपने भावः को क्या सुंदर बोल दिए है. बधाई.

admin said...

आप जो भी लिखते हैं, दिल से लिखते हैं। और सहज ही दूसरों के दिल को छू लेते हैं।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

कंचन सिंह चौहान said...

atyanta sanvedanshil

मुकेश कुमार तिवारी said...

ओम जी,

सार्थक कविता, लाजवाब।
मौन के खाली घर में वो जगह ना हो जहाँ बैठ के रोया जा सके, खुशियों का अंबार हो, आपसी प्यार हो।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

संध्या आर्य said...

BAHUT HI MARMSPARSI ....... PRIPAKWA BHAWANA KA EK SAARTHAK PRASTUTI YAHI TO AAPKA ANOKHA ANDAAJ HAI.......
DARD BHI HAI OUR YAADE BHI .........PAR SALIKE SE ...............DERO SHUBHKAMANAYE

दिगम्बर नासवा said...

अनोखे माध्यम से कही है असली बात....... कभी कभी इंसान अकेला ही निकल जाता है .......... बहुत दूर हो जाता है और बाद में पछताता है बैठा रहता है ये सोच कर की बहुत देर हो गयी...... लाजवाब तरीके से अभिव्यक्त किया है गहरी सोच को ......

सागर said...

यार यह कमाल है... छोटी सी बात, गहरे मायने लिए हुए... छपरा के हो, त राऊवा के भोजपूरी त...
बुझायल की ना...

Ashutosh said...

सुन्दर कविता
"हिन्दीकुंज"

Abhishek Ojha said...

भावनाएं उडेल दी हैं आपने... अच्छी अभिव्यक्ति.

M VERMA said...

बहुत गहराई से कही गई सुन्दर रचना व रचनाकार को मेरा सलाम बहुत खूब