गुजर गयीं दीवारें
दीवारें, जो एक घर बनाती थीं
पहले वे सीली हुईं
फ़िर धीरे-धीरे
उखड-उखड कर गिर गए पलस्तर
और फ़िर नंगी हो गई इंटें
रिसने लगी फ़िर
छत की आँख भी एक दिन
पर वो भूला हीं रहा
घर नही लौटा
भींग कर मोटी होती रहीं खिड़कियाँ और किवाड़
फ़िर पल्ले लगने बंद हो गए
अंतर्मन बैठा पसीझता रहा
और इंतज़ार के आख़िर में
गल कर पानी हो गया एक दिन
बे-लिबास रिश्तों को
पानी होने से
कब तक बचाया जा सकता है
16 comments:
बेहतर कविता...
पूर्वतैयारी की पूर्वापेक्षा जगाती हुई....
achchee rachna ,bdhai.
बे-लिबास रिश्तों को
पानी होने से
कब तक बचाया जा सकता है
sadhi hui rachana. bahut khoob.
बेहतरीन रचना..
parat dar parat zindgi ko ughadti is rachna me bahut kuchh aisa hai jo prabhavit karta hai....
badhaai !
बहुत ही सुंदर रचना.
धन्यवाद
अंतर्मन बैठा पसीझता रहा
और इंतज़ार के आख़िर में
गल कर पानी हो गया एक दिन
विश्वासो के जर जर होजाने पर इंतजार का गलकर पानी हो जाना लाज़्मी है,पर इन सारी प्रक्रियाओ मे अंर्तमन को कितनी पीडाओ से गुरनी होती है..........
यह वही दीवारे जानती होगी जो अपने जगह से गुजर जाती है ...........एक गम्भीरविषय पर कविता
हाँ कभी कभी
अच्छा लगता है
मौन के खाली घर मे आना
खुद का खुद से बतियाना
सुन्दर भावमय रचना के लिये बधाई
बे-लिबास रिश्तों को
पानी होने से
कब तक बचाया जा सकता है
सच लिखा-प्रभावी भी
श्याम
bahut behtreen kavita
बे-लिबास रिश्तों को
पानी होने से
कब तक बचाया जा सकता है
वाह ओम जी.......... कितनी भाव पूर्ण कविता है, मन के भाव उमड़ते हुवे अपने आप शब्दों का रूप ले रहे हैं.......धीरे धीरे ये मन ये शरीर गल जाता है......... रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं........... लाजवाब अंत है इस रचना का ................ अब तो इंतज़ार रहता है अपि कविता का.......... धीरे धीरे दीवाना होते जा रहा हूँ आपकी कविताओं का
वाह वाह क्या बात है! आपकी हर एक रचना एक से बढकर एक है! बेहतरीन रचना के लिए बधाई!
ओम जी,
दीवारों, खिड़कियों और छत के प्रतीकों ने भी दर्द इस तरह से उभारा है कि किस तरह एक घर मकान में और फिर मिट जाता है।
बधाईयाँ
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
ओम जी,
दीवारों, खिड़कियों और छत के प्रतीकों ने भी दर्द इस तरह से उभारा है कि किस तरह एक घर मकान में और फिर मिट जाता है।
बधाईयाँ
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
Achchi rachna hai.Badhai.
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