Friday, June 5, 2009

रात, नीम और मैं !

सारी रात
मैं उस नीम के
गले लग के रोती रही

सुबह देखा तो
वो और लहलहा रहा था

मेरे आंसू भी
उसने सींचने के वास्ते
इस्तेमाल किए होंगे

8 comments:

संध्या आर्य said...

सारी रात
मै उस नीम के
गले लग के रोती रही

जिन्दगी कुछ ऐसी ही होती है.....

बहुत बहुत ही अच्छी रचना ......

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत उम्दा रचना! बधाई।

gazalkbahane said...

सारी रात
मैं उस नीम के
गले लग के रोती रही

सुबह देखा तो
वो और लहलहा रहा था

प्रिय आर्यजी सुन्दर अभिव्यक्ति है,पर मेरे ख्याल मेम इसे यहीं खत्म हो जाना चाहिये था असल में कविता अपने आप सब कुछ नही कहती अपितु श्रोता या पाठक से अपनी बात कहलवाने में सक्षम होती है,
सुबह देखा तो
वो और लहलहा रहा था
इससे खुद-खुद ही आभाष होता है कि आंसुओं ने अपना काम कर दिया

अच्छा लिख रहे हैं लिखते रहें ,अनेकानेक शुभकामनाएं
http//:gazalkbahane.blogspot.com/
पर गज़ल या फिर
http//:katha-kavita.blogspot.com पर कविता ,कथा, लघु-कथा,वैचारिक लेख पढें
कविता

श्यामल सुमन said...

बहुत खूब ओम जी। गहरी बात। लेकिन श्याम सखा जी की बातों से बहुत हद तक मैं भी सहमत हूँ।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

डॉ .अनुराग said...

याद है तुम्हे उस रोज मेज पे बैठे बैठे
सिगरेट की डब्बी पे मैंने स्केच बनाया था ..

गुलज़ार याद आये ....

vandana gupta said...

lajawaab rachna............gahre bhav

दिगम्बर नासवा said...

क्या बात है ओम जी......... बहुत खूब लिखा है......... निःशब्द कर दिया आपकी भावनाओं ने

डॉ. मनोज मिश्र said...

bahut hee sundr bhav.