वो शाम का किनारा जिसके उस तरफ तुम्हारा समंदर डूब गया था
और जिंदगी की सारी लहरें गायब हो गयी थी अचानक धूंधलके में
उसी किनारे पे मेरी ख्वाहिशें ठहर गयी थीं।
पूरा का पूरा जिस्म झोंक दिया एक छोटे पेट के वास्ते
मुझे याद भी आईं बहुत बार,
वो ठहरी हुई ख्वाहिश
और मैं भूला भी बहुत बार।
पर जब कभी जिस्म को फुरसत मिली पेट सेदेखा जरूर उस किनारे को
जिसके उस तरफ तुम्हारा समंदर डूब गया था
और उन लहरों को जो गुम हो गयी थी अचानक।
ख्वाहिशें तो वहीं ठहरी हैं आज भी
बुलाया भी नही,
आवाज़ ही नही दी,
जानते थे वो नही आयेंगी!
11 comments:
sunder bhavmay abhivyakti hai badhai
ख्वाहिशें तो वहीं ठहरी हैं आज भी
बुलाया भी नही, आवाज़ ही नही दी,
जानते थे वो नही आयेंगी!...eske baad sare shabad nishabad ho jate hai....
अच्छी रचना!
bahut gahri bhavabhivyakti, om ji aapki kavita padhne/samajhne mein compartively samay to adhik lagta hai lekin man jhoom jata hai.
Kya comment katun...samajh nahee paa rahee...aur gehrayee abhi tak naap rahee hun...jo dang kiye jaa rahee hai!
snehsahit
shama
वाह डूबते टूटते रिश्तों को बेहतरीन अंदाज़ में चित्रित किया है आपने इन पंक्तियों में।
ऐसा लगता है भावना मोती हो तथा शब्द डोर दोनो को बहुत ही करीने से टुटॆ हुये रिश्ते से बान्ध दिया हो ......तब जाकर यह कविता बनी हो.......फिर एक बार एक बेहद मार्मिक कविता को पढ्वाने के लिये .......बहुत बहुत आभार
अपने दिल की आवाज को बहुत खूबसूरती से लफजों का जामा पहनाया है आपने। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बहुत खूब! बढ़िया रचना के लिए बधाई!
khwahishon ke thahrav me jism k jhonk diye jane aur pet k jawalamukhi ko shant karne k prayas me lahron ka door ho jana ,,dard ki inteha hai.......................
kavita ki vedna ...bhavuk karti hai
badhai ho !
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