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आजकल न कविता है
न प्रेम है
और न प्रेम कवितायें
सिर्फ भेदती हुई एक खामोशी है
जो शाम के
धुंधले प्रकाश के मर जाने के बाद भी
चिलचिलाती रहती है
और एक कई रातों से नहीं सोया एकांत है
जिसमें तुम्हें कहीं न पाकर
स्पर्श लौट आते हैं हथेली में
और बिस्तर पे देर तक आवारागर्दी करते हैं
सांस में इस तरह सन्नाटा है
जैसे आवाज और जीवन दोनों हीं
मृत्यु के नोंक पे ठहरे हों
एक हफ्ते से
अखबार में रोज तस्वीर के साथ
मेरे गुम होने की सूचना छपती है
और सुबह जब मैं दफ्तर के लिए ट्रेन पकड़ता हूँ
तो लोग कहते हैं
मैं क्यूँ कुरते पाजामे में घर से निकल आया था
और घर नहीं लौटता
मैं चुप रहता हूँ
और मन हीं मन उनको बताता हूँ कि
प्रेम बिना सब मृत्यु है
और फिर वे सब
सहमति में सिर हिलाते हैं
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Sunday, May 23, 2010
Monday, July 20, 2009
आवाज शोर की तरफ़ जा चुकी है
एक ऐसी दुनिया थी
जहाँ
आवाज कानो में नही गिरते थे
जब तक कि उसे शोर से भारी न बना दिया जाये
क्यूँकि वहां के लोग
धीरे-धीरे अपने कान मौके के अनुसार
ढालने में सक्षम हो गए थे
उसी दुनिया में
कुछ लोग
अपनी खामोशी लेकर खड़े हो जाते थे
सुने जाने के इन्तिज़ार में
उन खड़े लोगों को
उस दुनिया से
समय रहते निकाल लिया जाना जरूरी था
पर उन लोगों को
वहां से निकाल लेने का हुनर
किसी के पास नही बचा था.
जहाँ
आवाज कानो में नही गिरते थे
जब तक कि उसे शोर से भारी न बना दिया जाये
क्यूँकि वहां के लोग
धीरे-धीरे अपने कान मौके के अनुसार
ढालने में सक्षम हो गए थे
उसी दुनिया में
कुछ लोग
अपनी खामोशी लेकर खड़े हो जाते थे
सुने जाने के इन्तिज़ार में
उन खड़े लोगों को
उस दुनिया से
समय रहते निकाल लिया जाना जरूरी था
पर उन लोगों को
वहां से निकाल लेने का हुनर
किसी के पास नही बचा था.
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