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आजकल न कविता है
न प्रेम है
और न प्रेम कवितायें
सिर्फ भेदती हुई एक खामोशी है
जो शाम के
धुंधले प्रकाश के मर जाने के बाद भी
चिलचिलाती रहती है
और एक कई रातों से नहीं सोया एकांत है
जिसमें तुम्हें कहीं न पाकर
स्पर्श लौट आते हैं हथेली में
और बिस्तर पे देर तक आवारागर्दी करते हैं
सांस में इस तरह सन्नाटा है
जैसे आवाज और जीवन दोनों हीं
मृत्यु के नोंक पे ठहरे हों
एक हफ्ते से
अखबार में रोज तस्वीर के साथ
मेरे गुम होने की सूचना छपती है
और सुबह जब मैं दफ्तर के लिए ट्रेन पकड़ता हूँ
तो लोग कहते हैं
मैं क्यूँ कुरते पाजामे में घर से निकल आया था
और घर नहीं लौटता
मैं चुप रहता हूँ
और मन हीं मन उनको बताता हूँ कि
प्रेम बिना सब मृत्यु है
और फिर वे सब
सहमति में सिर हिलाते हैं
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Sunday, May 23, 2010
Tuesday, May 26, 2009
जितना भी तुमने छुआ है मुझे !
मैं रोज जी लिया करूंगा
अपनी हथेली पे
स्पर्श तेरी हथेली का
हथेली पे घटित हुआ वो स्पर्श
रोज घटा करेगा हथेली पे
तुम्हारी वो छुअन
कभी नर्म धुप की गुनगुनी रजाई
और कभी भींगी हुई भदभदाती बारिश
कभी फुर्सत में गुफ्तगू करता पूनम का चाँद
कभी पहाडों से बहकर आती हुई बयार की गुदगुदाती खुशबू
और कभी ...
उदास लम्हों में लबों पे हरकत करती
एक जिन्दा मुस्कान भी
टिका रहेगा वो स्पर्श हमेशा मेरे शाख के पत्तो पर
तुमने जितना भी मुझे छुआ है
उसकी लचक को जिस्म पे पहन के
मैं हमेशा बना रहूँगा बसंत
ये वादा
मैं कर देना चाहता हूँ तुम्हारे जाने से पहले.
अपनी हथेली पे
स्पर्श तेरी हथेली का
हथेली पे घटित हुआ वो स्पर्श
रोज घटा करेगा हथेली पे
तुम्हारी वो छुअन
कभी नर्म धुप की गुनगुनी रजाई
और कभी भींगी हुई भदभदाती बारिश
कभी फुर्सत में गुफ्तगू करता पूनम का चाँद
कभी पहाडों से बहकर आती हुई बयार की गुदगुदाती खुशबू
और कभी ...
उदास लम्हों में लबों पे हरकत करती
एक जिन्दा मुस्कान भी
टिका रहेगा वो स्पर्श हमेशा मेरे शाख के पत्तो पर
तुमने जितना भी मुझे छुआ है
उसकी लचक को जिस्म पे पहन के
मैं हमेशा बना रहूँगा बसंत
ये वादा
मैं कर देना चाहता हूँ तुम्हारे जाने से पहले.
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