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Saturday, May 29, 2010

रिश्ते भी देह बदलते हैं...

घर लौटता हूँ
तो तुम्हारी यादें,
उसकी बाहों में खो जाती हैं

वैसे तो मुझे याद है
कि नहीं रहती इस शहर में अब तुम
पर फिर भी
धडकनों को न जाने क्या शौक है
रुक जाने का अचानक से
और दिल भी बहाने बना लेता है कि
तुम जैसा कोई दिख गया था

उधर वो अक्सर पूछ लेती है
रात को क्यूँ चौंक गए थे तुम
यूँ क्यूँ लगता है

कि कभी-कभी तुम्हारी धडकनें रुक जाती हैं

दफ्तर से लौटते हुए
नजरें मुड जाती है तुम्हारे घर की तरफ
पर कई बार भूल भी जाता हूँ
जब घर के लिए देर हो रही होती है

कभी-कभी घर लौटने पे
घंटी बजाने से पहले हीं
जब खोल देती है दरवाजा वो
तब सोंचता हूँ
यह केवल इन्तिज़ार नहीं है
तुम्हारी आँखों में भी
वो जो पिघल जाता था मिलने पर मुझसे
मैंने ऐसा कभी नहीं सोंचा
कि वो केवल इंतज़ार था

तुम्हारे जाने के बाद
सब वही तो चला रही है
कितना कुछ तो बढ़ भी गया है

दरअसल
कई बार तुम्हें याद करता
उसकी बाहों में गया हूँ
और कई बार
उसकी बाहें तुम्हारी यादों में रही हैं

तभी तो लगता है
कि सिर्फ आत्म हीं नहीं
हमारे रिश्ते भी देह बदलते हें


******

Monday, April 26, 2010

दिल भात की पतीली का ढक्कन हो गया है

मैं जानती हूँ
तुमने देख ली होगी
मेरे होंठों पे वो कांपती हुई कशिश
और उनपे बार-बार जीभ फेर कर
भिंगाने की मेरी विवशता
और भांप ली होगी वो कमजोरी भी
जिसकी वजह से कोई
किसी की बांहों में निढाल हो जाता है

उस कुछ देर की मुलाक़ात में
अब बताऊँ भी तो
सदा गतिमान होने का दंभ भरने वाला
ये वक़्त क्या मान लेगा
कि वो ठहर गया था

वो धौंकनी सी जलती हुई मेरी सांस थी
जिसपे तुमने अपने पसीने वाले हाथ
रख दिए थे
और कैसे छनाके की आवाज हुई थी
मेरे रोम में
जैसे जलते कोयले पे

किसी ने पानी उड़ेल दिया हो

खुदा जानता है
कि वो दिन का वक़्त था
नहीं तो चाँद के सारे दाग धुल जाने थे

तुम तो चले आये थे,
मुझे तो याद भी नहीं
क्या वादे किये तुमने अपनी सीली आँखों से
मेरे लिए तो
वो नमी हीं काफी थी

थपकियाँ दे-दे कर सुलाती रहती हूँ
धडकनों को तब से मैं,
दिल तेज आंच पे चढ़ी
भात की पतीली का ढक्कन हो गया है

Tuesday, October 27, 2009

कब आ रही हो !!!

जब भी चली जाती हो तुम मायके
मैं एक एक कर
याद करता हूँ
अपनी सारी पुरानी प्रेमिकाएं

निकालता हूँ
कवर से गिटार
और रात देर तक उसके तारों को
छूते हुए कोशिश करता हूँ
महसूसना उन पुरानी प्रेमिकाओं को

कभी पार्क की
फिसल पट्टी पे लेट कर
आधा चाँद देखते हुए
सोंचता हूँ अधूरे प्रेमों के बारे में
और 'रात को रोक लो' वाला गाना गाता हूँ

निकालता हूँ
अपनी पुरानी लिखी कवितायें
एक दो पढता हूँ
और फ़िर रख देता हूँ
उनमें गंध आ गई है वैसी जैसी
बहुत दिन से पेटी में पड़े
पुराने कपडों में हो जाती है

और ये सब कर के
जब थक जाता हूँ
और हो जाता हूँ उदास
बनाता हूँ
मग भर कड़क काली चाय
और तुम्हें याद करते हुए पीता हूँ

और अगली सुबह
तुम्हें फोन करके पूछता हूँ
कब आ रही हो !!!


Saturday, July 18, 2009

नींद कों अभी और जागना था !!

उसने सांस छुडा लिए अपने
अब मैं बिना धड़कन हूँ

उसकी यादें रिसती रहती हैं
मन पे काई जम आई है

तुम एक सुकून की रात हो
तुझमें जाग कर यूँ लगता है

कोई मुकम्मल नज्म नहीं है अभी
मुकम्मल तो कुछ भी नहीं

कमरे में सांस बची नहीं थी बिलकुल
उसने सारे दरवाजे बंद कर दिए थे

हम थकने की हद तक थक गए थे
पर नींद कों अभी और जागना था

अरसे तक रिश्ते खुले रह गए
फिर वे कहीं चले गए बिना बताये

तुम अपनी बाहों में फैला लो मुझे
तंग गलियों में मेरा ठिकाना है

Tuesday, May 26, 2009

जितना भी तुमने छुआ है मुझे !

मैं रोज जी लिया करूंगा
अपनी हथेली पे
स्पर्श तेरी हथेली का

हथेली पे घटित हुआ वो स्पर्श
रोज घटा करेगा हथेली पे

तुम्हारी वो छुअन
कभी नर्म धुप की गुनगुनी रजाई
और कभी भींगी हुई भदभदाती बारिश

कभी फुर्सत में गुफ्तगू करता पूनम का चाँद
कभी पहाडों से बहकर आती हुई बयार की गुदगुदाती खुशबू

और कभी ...
उदास लम्हों में लबों पे हरकत करती
एक जिन्दा मुस्कान भी

टिका रहेगा वो स्पर्श हमेशा मेरे शाख के पत्तो पर

तुमने जितना भी मुझे छुआ है
उसकी लचक को जिस्म पे पहन के
मैं हमेशा बना रहूँगा बसंत
ये वादा
मैं कर देना चाहता हूँ तुम्हारे जाने से पहले.