मैं जानती हूँ
तुमने देख ली होगी
मेरे होंठों पे वो कांपती हुई कशिश
और उनपे बार-बार जीभ फेर कर
भिंगाने की मेरी विवशता
और भांप ली होगी वो कमजोरी भी
जिसकी वजह से कोई
किसी की बांहों में निढाल हो जाता है
उस कुछ देर की मुलाक़ात में
अब बताऊँ भी तो
सदा गतिमान होने का दंभ भरने वाला
ये वक़्त क्या मान लेगा
कि वो ठहर गया था
वो धौंकनी सी जलती हुई मेरी सांस थी
जिसपे तुमने अपने पसीने वाले हाथ
रख दिए थे
और कैसे छनाके की आवाज हुई थी
मेरे रोम में
जैसे जलते कोयले पे
किसी ने पानी उड़ेल दिया हो
खुदा जानता है
कि वो दिन का वक़्त था
नहीं तो चाँद के सारे दाग धुल जाने थे
तुम तो चले आये थे,
मुझे तो याद भी नहीं
क्या वादे किये तुमने अपनी सीली आँखों से
मेरे लिए तो
वो नमी हीं काफी थी
थपकियाँ दे-दे कर सुलाती रहती हूँ
धडकनों को तब से मैं,
दिल तेज आंच पे चढ़ी
भात की पतीली का ढक्कन हो गया है
20 comments:
kya kahu???
jab se aapke BLOG se mulakat hui hai meri,
aapke shabdo ki kashish khich lati hai yahan...or tab jo dil ko sukun milta hai use bayan karne ke liye shabd nahi hai mere paas!
aapki is rachna ne dil ko chu liya.
regards-
#ROHIT
kya kahu???
jab se aapke BLOG se mulakat hui hai meri,
aapke shabdo ki kashish khich lati hai yahan...or tab jo dil ko sukun milta hai use bayan karne ke liye shabd nahi hai mere paas!
aapki is rachna ne dil ko chu liya.
regards-
#ROHIT
Aah..ek shabdheen maun behtar samajhti hun..
दिल तेज आंच पे चढ़ी
भात की पतीली का ढक्कन हो गया है
और यह रचना पढते पढते दिल जो भात की पतीली का ढक्कन हो गया है, उसका क्या करें
बेहतरीन प्रयोग आप की विशिष्टता है
शायद आप जिस उष्णता को रेखांकित करना चाहते है वह यथावत पाठक तक पहुँचती है
"दिल भात की पतीली का ढक्कन हो गया है"..
वाह ,सुंदर अभिव्यक्ति.
sab kuchh khoobsurat hai muaamla bhi uski tafseelat bhi .... badhaayi
"धडकनों को तब से मैं,
दिल तेज आंच पे चढ़ी
भात की पतीली का ढक्कन हो गया है....."
गनीमत है, कुकर और माइक्रोवेव के समय काल में भी दिल पुरानी लय और मर्यादा निभा रहा है!
सुन्दर विचार, कमाल की प्रस्तुति!
bahut hi sundarta se prayogatmak chitran kiya..badhai....
नि: शब्द रह गए गज़ब की अभिव्यक्ति ..खुदा जानता है दिन का वक्त था नहीं तो नहीं तो चाँद के सारे दाग धुल जाने थे
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति!
न ज़ी भर के देखा,न कुछ बात की.
बड़ी आरज़ू थी मुलाकात की..
सोनल जी ने कह दी मेरे भी दिल की बात!
कुंवर जी,
bahut hee uttam rachna bhai ji.
om ji
kin lafzon mein tarif karoon............vicharon aur bhavon ka manthan jis tarah aap karte hain uske liye shabd nahi hai ..........is manthan mein har baar ek naya prayog ek naya ras ek naya bhav hota hai jo dil ko bhigo jata hai.
विमुग्ध हूँ बस .... और क्या कहूँ ?
aapki kalam kee baat hi alag hai, bhawnaaon kee syaahi se poorn
kya baat hein... bahut hi badiya aur alag andaaz hein aapka ..
बहुत बढ़िया बिम्ब है भाई ।
हे भगवान ! किस स्याही से लिखतेहैं आप ? कहाँ से लाते हैं ऐसे शब्द और भाव..मैं तो निशाब्ध ही रह जाती हूँ हमेशा.
गतिमान वक्त अब भी ठहर गया था..जब आपकी पोस्ट पढ़ी थी..और तबसे बार-बार ठहरता हुआ आ रहा है यहाँ तक..किसी बिगड़ी गाड़ी की तरह!
बाहों मे निढ़ाल होने की कमजोरी मे ही वक्त की आंखे उस पल के लिये झपकी होंगी..जब हाथों का पसीना साँसों के उन सुलगते अंगारों के बदन पर किसी सीप मे बूँद की तरह जा पड़ा था..और चाँद वक्त की इसी बेखयाली को कोसते हुए अपने दाग सहलाता रहा होगा...
दिल तेज आंच पे चढ़ी
भात की पतीली का ढक्कन हो गया है
..कि कम्ब्ख्त इकरार की सीटी भी नही लग सकी!
...ऑसम!!
Post a Comment