सालों साल
सूखता रहा दरख्त
धूप में खड़ा, अकेला
पहले पत्ते छूटे हाथ से
फिर एक एक कर छूटीं टहनियां
उधडी फिर खाल भी
पर सावन की आँख उमड़ी नहीं
सूखा दरख्त और कितना सूखता
जल गया एक दिन
जला जब दरख्त
तो बादल काला हुआ धुएँ से
और तब बरसा सावन
पर तब सिर्फ राख बची थी गीली होने के लिए...
सूखता रहा दरख्त
धूप में खड़ा, अकेला
पहले पत्ते छूटे हाथ से
फिर एक एक कर छूटीं टहनियां
उधडी फिर खाल भी
पर सावन की आँख उमड़ी नहीं
सूखा दरख्त और कितना सूखता
जल गया एक दिन
जला जब दरख्त
तो बादल काला हुआ धुएँ से
और तब बरसा सावन
पर तब सिर्फ राख बची थी गीली होने के लिए...