Sunday, February 8, 2009

शायद जख्म हीं खुराक है मेरी!

जहाँ से भी मिला
जिस भी बदन से
उठा के लाद लिया अपने बदन पे

अब ठीक से याद भी नही
कहाँ से उठाया
किस बदन से कब

इकठ्ठा करता रहा,
आलमारी और रैक भर गए जब
तो दीवान खरीद लिया
अब उनके ऊपर हीं सोता हूं।

आज की तारीख में
ये तय करना मुमकिन नही कि
कौन सा जख्म तो अपने बदन का है और कौन
कहीं से उठाया हुआ
समय के साथ सबका चेहरा एक सा हो गया है
पूरी तरह गड्ड-मड्ड
और फ़िर इतने दिन अपने घर में
रखने के बाद तो
सब अपना हीं लगता है


बहुत बार की है कोशिश कि
किसी पोटली में बाँध कर
दूर फेंक आऊं इन्हें
और पूरी तरह बेजख्म हो जाऊं


प्रण भी किया है कई बार कि
इन जख्मों को उतार के हीं रहूँगा
पर ये मुमकिन नही...

मुमकिन नही क्यूँ कि
शायद जख्म हीं खुराक है मेरी
जख्म खा के हीं जिन्दा हूं !

5 comments:

विवेक said...

क्या बात है...हम सब कितने ही ज़ख्म ढोते हैं...कुछ अपने कुछ दूजों के...सुंदर।

vandana gupta said...

shayad zakhm hi khurak hain meri------inhi panktiyon ne sab kuch kah diya.bahut khoob.

zakhm khana meri aadat to nhi magar
zakhmon ke bina rah bhi nahi pata hun
jab bhi milte hain hans ke milte hain
shayad isliye zakhm meri khurak ban gaye hain


aur kya kahun........sach kaha aapne zakhm apne ya paraye nhi hote.

संध्या आर्य said...

आज की तारीख में
ये तय करना मुमकिन नही कि
कौन सा जख्म तो अपने बदन का है और कौन
कहीं से उठाया हुआ
समय के साथ सबका चेहरा एक सा हो गया है
पूरी तरह गड्ड-मड्ड
और फ़िर इतने दिन अपने घर में
रखने के बाद तो
सब अपना हीं लगता है


आज की तेज रफ्तार जिन्दगी मे लोग आपनो को गले लगाते ही नही है और आप हो की जख्मो को गले लगाये ही नही हो बल्कि अपने जिन्दगी जीने की जरीया बनाये हुये हो.काश आपकी जिन्दगी मे ऐसा कुछ होता की सारे जख्म गायब हो जाते.

Vinay said...

सुन्दर अभिव्यक्ति

---
गुलाबी कोंपलें

हरकीरत ' हीर' said...

मुमकिन नही क्यूँ कि
शायद जख्म हीं खुराक है मेरी
जख्म खा के हीं जिन्दा हूं !

WAh...! Om ji rooh tript hui...! Bhot khooob...!!