Tuesday, January 19, 2010

सिरहाने में से आधा चाहिए...

सिरहाने में से
आधा चाहिए...

जब आऊं किचेन से काम कर के
और तुम पहले से रजाई में रहो
तब चाहिए
तुम्हारी हथेली और तलवे से आधा ताप

चाहिए अपने कंधे पे तुम्हारा एक हाथ
और कदम सारे साथ-साथ

जहाँ जहां मैं तुम्हारा आधा लेकर
हो सकती हूँ पूरी,
खड़ी हो सकती हूँ तुम्हारे साथ
वहां-वहां चाहिए तुम्हारा आधा

और कई जगह चाहिए पूरा भी...

ऑफिस के लिए घर से निकलते समय
चाहिए एक पूरा आलिंगन
और माथे पे एक पूरा चुम्बन
और चाहिए तुझमें अपनी पूरी सिमटन
शाम ढले जब तुम ऑफिस से लौटो तो

तुम्हारी आँखों के लौ
और होंट के स्वर भी चाहिए
जितना तुम दे सको

और बदले में इसके

मेरी तरफ से
एक पूरा ग्लास समर्पण
जब तुम घर लौट कर सोफे पे बैठो तो

बाकी कभी-कभी तो हम
साथ पान खा हीं सकते है

32 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

अद्भुत.... बहुत सुंदर पंक्तियों के साथ....बहुत सुंदर रचना.... मोगैम्बो ...खुश हुआ...

Arshad Ali said...

bahut sundar rachna
itni sundar kabita jo kam shabdon me ek puri baat kah gayi.

shikha varshney said...

O M G .......मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं कुछ कहने के लिए...किस किस चीज़ की तारीफ करूँ? शब्दों की? भावों की? या फिर मासूमियत की ...कुछ भी कहना मेरी क्षमता से बाहर है ..hats off to you

Urmi said...

वाह अत्यंत सुन्दर रचना! दिल को छू गयी हर एक पंक्तियाँ!

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

रूप
यह सहजता
शब्दों की सीधी गहराई
बिना लाग लपेट -
भा गई।
इतना सहज नागर बोध !
वो समर्पिता
किसी ने तुम्हें सँजोए रखा है -
पता है तुम्हें ?

कंचन सिंह चौहान said...

एक औरत अपने मन के भाव बखूबी उड़ेल दे, जैसा फील किया वैसे ही को शब्द दे ले, ये उसका हुनर है....! एक पुरुष भी जब बिलकुल ऐसा ही कर ले तो वो भी एक अद्भुत गुण है....!!!

लेकिन जब एक पुरुष किसी औरत का मन उतार कर शब्दों में रख दे तो...???

ओफ्फ्फ्फोऽऽऽऽ बस बार बार पढ़ रही हूँ और हर बार की तरह मौन के खाली घर में मौन हूँ....!!!!!!

dipayan said...

बहुत सुन्दर भाव और सहज श्ब्दो रची हुई. बहुत खूब

वन्दना अवस्थी दुबे said...

अतिसुन्दर.

विनोद कुमार पांडेय said...

भावनाएँ और शब्द दोनो लाज़वाब..सुंदर भाव..बधाई ओम जी!!

Alpana Verma said...

कितनी आसानी से सभी बातें कह डालीं!
बहुत ही नरम से अहसासों को शब्दों का जामा पहना दिया!
बहुत खूब!

गौतम राजऋषि said...

उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़

...ओम भाई...ओम भाई...तमाम तारिफ़ों से परे।

मैं और मेरी अर्धांगिनी साथ-साथ पढ़ रहे हैं आपकी ये अद्‍भुत कविता और सोच रहे हैं कि ये हमारी बातें आपको कैसे पता चली और चली तो इतने खूबसूरत शब्दों में ढ़ालने की जादूगरी...नहीं, वो तो आप पूरे जादूगर हो जब अपने कविता का सम्मोहन-मंत्र फूंक मारते हो।

हमदोनों बड़ी देर से ये कविता पढ़ रहे हैं आपकी "आधे-आधे साथ" होकर.....कश्मीर की ये ठिठुरती वादी रात के सवा बजा रही है।

लगता है जैसे सदियों बाद एक सचमुच की कोई प्रेम कविता पढ़ी हो....

Udan Tashtari said...

क्या बात है ओम भाई...बेहद कोमल और भावपूर्ण अभिव्यक्ति!!


बेहतरीन!!

ओम आर्य said...

बहुत शुक्रिया, आप सब का दिल से सीधे...
गौतम जी...आपने तो हौसले को बड़ा कर दिया ये कह के कि रात को सवा बजे मैडम के साथ आप मेरी कविता बार-बार पढ़ रहे हैं...
मैडम को मेरा नमस्कार कहियेगा...
कंचन जी के बारे में तो अनूप जी कह हीं चुके हैं

vandana gupta said...

ek nari ke manobhavon ko aaine ki tarah dikha diya hai .........kash ye bhav har mard samajh jaye to shayad duniya ki aadhi se jyada samasyayein hal ho jayein........bahut hi bheena bheena ahsaas liye hai ye kavita.

अजय कुमार said...

नारी मन के भावनाओं का सुंदर चित्रण

Razi Shahab said...

achchi kavita

kshama said...

Bahut khoob!

डिम्पल मल्होत्रा said...

kavita me kavita ka aana sukhad lga .use aana hi tha ik din.bahut achha lga.

रचना दीक्षित said...

आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आ पाई. मन के भावों को सही दिशा दी है और एक नारी मन की सही तस्वीर उकेरी है
आभार

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

aafareen!!

आनन्द वर्धन ओझा said...

ओम भाई,
क्या खूब लिखा है यह प्रणय-काव्य ! अहसासों को शब्दों के मोती में खूब बंधा है बन्धु ! 'कभी-कभी पान खाने' पर मुग्ध हुआ जाता हूँ ! एक अजीब-सी तासीर है इस कविता में !
बधाई और दुआएं भी !
सप्रीत--आ.

श्रद्धा जैन said...

waah main to gum ho gayi shabdon mein
man khush ho gaya

Yogesh Verma Swapn said...

kabhi kabhi hi kyon?????????????????????????????

bahut umda.

अर्चना तिवारी said...

वसंत पंचमी कि हार्दिक शुभ कामनाएँ...सुंदर एवं कोमल भावाभिव्यक्ति

Dr. Tripat Mehta said...

wah wah!
bahut sunder

Kulwant Happy said...

क्या खूब कही है

मन की
न मन में रही है
हम तो कहेंगे

सही है भाई सही है

जो बात आपने शब्दों में
सच्चे मन से कही है

Sonalika said...

om ji
kavita ki tarif ke liye logon ne shabd hi bachaye.
nari man ki sunder abhiwakti.

सागर said...

नयी नयी शादी के नए नए अरमान... यही दिन पुरानी वालीओं को कोने में रख देते हैं... उधर भी जाना होगा... जरा देर लगेगी...

हरकीरत ' हीर' said...

कल ही सोच रही थी ये ओम जी कलम खामोश सी क्यूँ हो गई .....आज आपकी आँखों की लौ में नाद करते होंठों के स्वर एक पूरे गिलास समर्पण के साथ साथ ....पान की मिठास भी दे गए ......!!

अपूर्व said...

प्रणय की सैक्रीन..अतिशय मीठी..
हालाँकि अपनी अभी ऐसी स्टेज नही आयी है..सो उस गहराई तक नही पहुँच पा रहा हूँ..मगर इस गहराई का अंदाजा लगा कर ही खुश हूँ..और क्या कहूँ :-)

के सी said...

कविता जिस सरलता से मन के भीतर प्रवेश करती है वही इसकी खूबी है. बधाई.

"अर्श" said...

ओम भाई आपकी इस कविता की चर्चा दूर तक होने लगी है , सूना और फिर रहा नहीं गया फिर धुनधते धुनधते आपके ब्लॉग पर पहुंचा ... तारीफों से कहीं आगे निकल चुकी है यह कविता ... हद कर दी आपने इस कविता के माध्यमसे ब्लॉग जगत में... जिस महसूसियत और नजाकत से आपने यह कविता कही है वो करीने की नज़र शायद हम पढ़ने वाले पहुचंह नहीं पा रहे है ... मगर इस रस में डूबता उतरता रह रहा हूँ.. बहुत बहुत बधाई साहिब...


अर्श