कुछ दुखों कों अस्तित्व में आना था
मेरा शरीर काम आया
मुक्त हुए वे देह पाकर
मगर अपनी अंतिम यात्रा पे
जाते-जाते
वे राह बता गए
और कई सारे दुखों को
और तब से उनकी आमद
बदस्तूर जारी है
सोंचता हूँ
बहुत सारे सुख भी होंगे
कतार में
देह पाकर प्रकट होने जाने के वास्ते खड़े
फिर सोंचता हूँ
शायद उन्हें भी
बता गए हों कुछ पूर्वज सुख
कुछ पते-ठिकाने
जहां प्रकट हो रहे हों वे लगातार
मैं अपनी देह लेकर
नहीं गया कभी उन तक
न हीं कोशिश की
कि पता चले उनको मेरी देह का पता
जाने क्यूँ मुझे हमेशा लगता रहा है
कि इस दुनिया से
पहले दुखों का मुक्त होना जरूरी है...
17 comments:
सुख और दुख जिंदगी के दो महत्वपूर्ण अंग है एक एक करके वो आते ही रहते है आदमी जब सुख में होता है तब सब कुछ भूल जाता है पर दुख भी जीवन में आते ही है इनका सामना करना हँस कर करना चाहिए...बढ़िया भाव सुंदर रचना बधाई ओम जी
बहुत सुंदर.
संवेदनशील रचना। बधाई।
सुख और दुःख जीवन के पहलु है दुःख न मिले तो सुख का एहसास सुंदर न हो
कविता बहुत गहरे भाव लिए हुए है
सुख और दुःख जीवन के पहलु है दुःख न मिले तो सुख का एहसास सुंदर न हो
कविता बहुत गहरे भाव लिए हुए है
दुखों से मुकत कहाँ हुया जा सकता है दुख के बिना सुख की कल्पना ही नही की जासक्ती --- बस चलते रहो यही जिन्दगी है बहुत भावमय रचना है बधाई
Behad anootha khayal hai!
इस कविता से पहले मुझे जयपुर वाली कविता के बारे में लिखना था किन्तु पारिवारिक स्थितियों से घिरा हुआ हूँ. बीते साल में बहुत कुछ खो देने का सिलसिला थम नहीं रहा. अभी भी मन स्थिर नहीं है मगर आपकी ये और पहले वाली कविता देखी है के बार. जयपुर की सीढियों और नाहरगढ़ ने मेरे भी मन में कई तीर चुभा रखे हैं. देखें कि कुछ समय मिले तो आता हूँ.
वकै अनोख और कुछ्ह हत्के कुन्तु अनुपम खयल. बफधाइ.
oh.........behad gahan..........soch , kalpna , bhavnayein kahan kahan tak pahuch gayi aapki..........naman hai.
आपको पहली बार पढा .....
सच कहूँ.... बहुत अच्छा लगा....
बहुत सुंदर....
स-स्नेह
गीता
दुख है तभी तो सुख का एहसास है
कुछ पाता हूँ आपकी रचनाओं मे..हर बार..एक पारलौकिक सा विचित्र अंतस्-राग...एकाकी..आपकी हर कविता मे सर्वनिष्ठ..इंद्रियों को झंकृत करते हुए भी इंद्रियातीत..जो अपनी प्रतिध्वनियाँ छोड़ जाता है हृदय मे..गूँजती हुई..मगर उसके बाद दुःख भी ’दुःख’ सा नही रहता..न दर्द ही ’दर्द’ रह जाता है..कुछ और हो जाता है....क्या....पता नही!!!
कवि दुःख में रह के या दुखो को अपने पे झेल के मुक्त करना चाहता है और सुखो को संसार में रहने देना चाहता है,या कहे कि संसार को सुखी देखना चाहता है.
pahli panktiyon mein hi asar hai..well done sir :)
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