भरी दोपहर में घर लौटकर
देखा
कि तुम कहीं और
मुझसे दूर, बहुत दूर
बारिश में भींगती शाम लग रही हो
मैंने अक्सर सोंचा है
कि तुम बारिश में भींगती शाम हीं हो
या उसके लिए
मेरा
भरी दोपहरी में होना जरूरी है
और तब
मेरी आँखें मुस्का गयी हैं ये जान कर कि
दरअसल मेरी सोंच हीं तुम्हारी बारिश में भींगी है
और मैं
कभी भी भरी दोपहर में घर लौट कर
तुम्हें
बारिश में भींगी शाम की तरह पा सकता हूँ
तुम जवान हीं पैदा हुई
मैंने देखा तुम्हे जनमते हुए अपने ख्वाब में
एक भरी दोपहर को घर लौट कर ली हुई झपकी में.
तुम मेघ भरे काले दुपट्टे में जन्मीं थी
जो बरस कर मुझे पसीने से तर-बतर कर गयी थी
उसके बाद तो
मेरी आँखों ने
तुम्हारा सुरीलापन न जाने कितनी दफा पढ़ा
और तुमने एक बार भी अपनी धुनें गिरने नहीं दीं
न जाने कितनी रातों को हम चले चाँद के साथ
वो घटता-बढ़ता रहा
और हम जोड़ते रहे अपनी रातों के लिए
जरूरते भर रोशनी
वे सफ़र कभी ख़त्म नहीं हुए
और आज भी बदस्तूर जारी हैं
आज भी मैं उठता हूँ
तो उसी बिस्तर से
जहाँ से उठाई थी मैंने आखरी नींद तुम्हारे साथ
मुझे मुबारक है वो झपकी
और वो ख्वाब
जिसमें पैदा हुई तुम
और अक्सर मनाता हूँ तुम्हारा जन्म दिन
भरी दोपहर में घर लौट कर
जिसमें तुम बारिश में भींगती शाम लगती हो
भले हीं दूर, बहुत दूर शायद..
20 comments:
बहुत उम्दा ओम भाई!
सुंदर रचना.
और ये सफर कभी खत्म नही हुये------ ओम जी बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है ----- जिस बिस्तर से उठाई थी ----- मैने देखा तुम्हें जनमते हुये----- कितनी संवेदनायें संएटे हुये है ये बारिश मे भीगी शाम बेहतरीन अभिव्यक्ति है शुभकामनायें
om ji...
very nice composition...
keep writing!
सुन्दर !
सुंदर अभिव्यक्ति
मैं क्या कहूँ अब ............... आपने निःशब्द कर दिया है.... बहुत ही सुंदर कविता....
उम्दा अभिव्यक्ति ।
Bahut sundar rachana...jo dil me ek kasak chhod jatee hai..sanmvednaon kaa samadar lahrata hai...dua nikalti hai ki, wo bheegee shaam aapko mil jay!
बहुत बहुत शुन्दर हर लफ्ज़ . क्या कहे कुछ समझ नहीं आ रहा है ..शुक्रिया
om ji
aap to nishabd kar dete hain..........kis gahrayi mein doobkar likhte hain, kaun se ahsaason ko choo lete hain.........bhavon ko kaise samet lete hain............sach bejod hai.
wah uniqe thoughts..
मुझे मुबारक है वो झपकी
और वो ख्वाब
जिसमें पैदा हुई तुम
क्या बात है ओम जी. हमेशा कुछ नया रच देते हैं.
nahi yeh comment is sham ke liye katayi nahi hai om.
yeh us choti si bhawna bhivyakti ke liye hai jaha khusbu ki talash me aap amna badan khol dete hain
apke blog ka main wo regular member hoon to thoda alsi hai comment karne me . muaaf rakhiyega
satya a vagrant.
अच्छी कविता है ओम जी
भावुक,मासूम और गहरी
बधाई
behatareen abhivyakti.
इस्सस... कितना जटिल... काम्प्लेक्स और कल्पनाशील सोच!
इन सोचों को सलाम..इन ख्यालों को सलाम..और सबसे ऊपर इन सोचों-ख्यालों को इतने खूबसूरत शब्दों में ढ़ालने वाली लेखनी को सलाम!!!
सच मे..इतनी कल्पनाशील आँखें अगर मुस्करा के कुछ सोच रही है तो यकीनन मुबारक ख्वाबों मे इन ख्वाबों से भी नाजुक और धुनो से भी ज्यादा सुरीली शै की पैदाइश से रोशन हो रही होंगी..और आँखों मे छुपी बारिश की यह शाम आंखों की बारिश से कितनी अलहदा और खूबसूरत..
वैसे दो अलग-अलग कविताएं महसूस हुईं इस कविता मे...
अक्सर मनाता हूँ तुम्हारा जन्म दिन
भरी दोपहर में घर लौट कर
जिसमें तुम बारिश में भींगती शाम लगती हो
भले हीं दूर, बहुत दूर शायद..
bahut sundar..
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