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Sunday, March 13, 2011

मैं चाहता हूँ अपना अंकुरण

जहाँ से संगीत उठता है
और धीरे-धीरे चढ़ता है पहाड़
और कभी-कभी अचानक भी
उस तार में छेड़ कर छोड़ दिया जाऊं
झंकृत
और बजूँ पृथ्वी के घुमने तक

आत्मा जो सो गयी है
खो गयी है
नहीं पहुँच पाती मेरी भी आवाज उस तक
रोम-रोम में भर सकूं इतना उत्ताप
कि हो जाए कुण्डलिनी उसकी
जागृत
और फिर न सोने दूं उसको कभी

सांस खींचूँ तो
असीम ऊर्जा का हो आलिंगन
एक बार तो फूटे ये जिस्म

किसी कवच के भीतर जकड़ा हुआ
मैं चाहता हूँ अपना अंकुरण

_______________

Sunday, July 11, 2010

स्त्री के हक़ में कविताएं

*
जैसे कठिन होता है
पुरुष होते हुए
उबले हुए गर्म आलू छीलना
और बिना चिमटे के अंगीठी में रोटियां सेंकना
उसी तरह कठिन है
पुरुष होते हुए अभी जीना भी

क्यूंकि अभी भी जरूरी है
कि लिखी जाएँ स्त्री के हक़ में कविताएं

**
तुम्हारी कमीज से
जब करीब आयी मेरी नाक
पसीने की गंध से भर गए नथुने
पर चूम कर हीं लौटा
तेरा पसनाया हुआ
वो गर्दन का तिल

जानता हूँ
इस एक बेडरूम,
हौल और किचेन की परिधि के भीतर
दिन भर न जाने कितने होते होंगे काम

***
बारिशें आती हों
और पृथ्वी भींगने के लिए
खड़ी हो जाती हो
घूमना छोड़ कर

तुम्हें जब कभी देखा है एक टक
मिट्टी महकी है
तेरी सोंधी-सोंधी सी

इतनी बारिशें हुईं
पर उसे गलते नहीं देखा

****

Thursday, July 1, 2010

सपने बिना शीर्षक के अच्छे नहीं लगते

जिस सपने में
पहली बार तुम मिली मुझे
उसे मैंने जागने के बाद
न जाने कितनी बार देखा होगा

पहले की तरह हीं
आगे भी
मैं देखता रहूँगा
बार-बार उसे,
उस ख्वाब को
जिसमें मैं चूम आया था
तुम्हारी आँखों के आग

यह तय होते हुए भी
कि तुम मिलोगी किसी नियत समय में
एक निश्चित जगह पर
मैं ढूंढता रहूँगा तुम्हे
बेपनाह सड़कों पर
और मेरी हताश और थकान
तुम छिपा लेना अपने वक्ष में
जब मिलो मुझे

हम बांटते रहेंगे
अपनी व्यस्तताएं
और बनाते रहेंगे निरंतर
प्यार के लिए जगह और समय
और हमेशा रखेंगे ये ख्याल
कि आगे पृथ्वी को छोटे होते जाना है
और धीरे-धीरे उसके
अपनी धुरी पे
घूमने के घंटे कम होते जाने हैं

सहवास के दौरान
मैं तुम्हारे आँखों में भर दूंगा सपने
ताकि कुछ और नन्हें सपने
खोल सकें अपनी पलकें
ताकि गर कभी प्रेम क्षीण हो जाए
जैसे कवितायें क्षीण होकर क्षणिकाएं हो जाती हैं
तब भी वे नन्हे सपने पहाड़ पे चढ़ सकें
और उनका कोई शीर्षक हो

क्यूंकि सपने क्षणिकाएं नहीं हैं
वे बिना शीर्षक के अच्छे नहीं लगते


*****

Sunday, February 14, 2010

जब सुनसान हो जाती है पृथ्वी

तुम बची रहोगी
उन पुरानी
उतार दी गयी कपड़ों की सिलवटों में
और महसूस हो जाओगी अचानक
जब किसी दिन
यूँ हीं ढूंढ रहा होऊंगा कोई कपड़ा
कुछ पोंछने के लिए,
ये मैंने सोंचा नहीं था

मुझे ये बिलकुल नहीं लगा था
कि इस सतही वक़्त में
जब प्यार इतना उथला हो गया है,
कोई इतने लम्बे अरसे तक
एक सिलवट में रहना चाहेगा इतना गहरा
वो भी तब जब
महसूस लिए जाने की संभावना बिलकुल नगण्य हो

जबकि वक़्त ने छोड़ दिया है रिश्तों की परवाह करना
और बनने से पहले हीं टूटने लगी हैं चीजें
तुम इतनी संजीदगी से
कैसे बचा सकती हो रेत का घड़ा
और पानी आँखों में

मुझे ये भी नहीं पता
तुम्हे अचानक सिलवटों में उस रोज
पा लेने के बाद
यूँ हीं बिना बात,
बिना किसी ताज़ी पृष्ठभूमि के
मुझे जब-तब रुलाई आ जाया करेगी
ख़ास कर उन रातों कों
जब सुनसान हो जाती है पृथ्वी

तुम जब
थी हकीकत में,
इतनी तो नहीं थी संजीदा !!

Monday, February 8, 2010

बार-बार 'चेन पुलिंग' हो रही है ...

*
बार-बार 'चेन पुलिंग' हो रही है

जिंदगी
थोड़ी देर के लिए रूकती है
और फिर चल देती है

बस हर बार
चेन पुलिंग होने पे
कुछ लोग जिन्दगी से उतर जाते है

**
शहर,
जहाँ गुजारते हैं हम
अपना लहू, अपनी मांस-मज्जा
उम्र भर देते रहते हैं
अपनी त्वचा का प्रोटीन
इसके प्रदुषण कों देते हैं अपना फेफड़ा
अपनी धमनियां व शिराएँ

उस शहर की बाबन हाथ की आंत है
और हमारी औकात सिर्फ साढ़े तीन हाथ की है

***
वक़्त हीं तय करेगा
चीजों का
जरूरी या गैर-जरूरी पना
या रेट करेगा
स्केल पे घटनाओं की तीव्रता
और उसके आधार पे
बचाएगा या खर्च करेगा खुद को

हमारे हाथ में लेते हीं वो रेत हो जाएगा

****

आज टूट गया है,
आइना इश्क का
रूह देखती आयी थी एक उम्र तलक चेहरा जिसमे

बदन छोड़ गया है साथ
बेबा हो गयी है रूह!

*****
कुछ रूहें
जो उलझ जाती होंगी पापकर्म में
उस परलोक में
भर जाता होगा जिनके पापों का घड़ा

वे रूहें पाती होंगी इस पृथ्वी पे
एक बेहद कोमल ह्रदय वाला बदन
और ईमानदार मन
ताकि वे दुःख उठायें लगातार.

Friday, October 23, 2009

फूली नही समा रही है पृथ्वी !

आदमी मुस्कुराता है

नही हमेशा,
कभी-कभी हीं सही
पर अभी भी
जारी है आदमी का मुस्कुराना

आदमी हमेशा हँसता-मुस्कुराता रहे
मुस्कुराने के मौके तलाशे और तराशे
ऐसी मेरी चाहत है और प्रार्थना भी

मुझे फक्र है
हर मुस्कुराते हुए आदमी पर
जो इस सनातन दुःख के बीच
मुस्कराहट इन्सर्ट करने की हिम्मत रखता है

मेरी कल्पना में
अक्सर जीवित हो उठता है वो दृश्य
जिसमें छह अरब लोग
एक साथ मुस्कुरा रहे हैं

उस दृश्य में
धरती का आयतन
वर्तमान से कई गुणा ज्यादा है
दरअसल, फूली नही समा रही है पृथ्वी
उस दृश्य में

उस दृश्य में मुस्कुराते हुए
देख रही है वो मुझे
और मैं उसे.