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Sunday, July 11, 2010

स्त्री के हक़ में कविताएं

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जैसे कठिन होता है
पुरुष होते हुए
उबले हुए गर्म आलू छीलना
और बिना चिमटे के अंगीठी में रोटियां सेंकना
उसी तरह कठिन है
पुरुष होते हुए अभी जीना भी

क्यूंकि अभी भी जरूरी है
कि लिखी जाएँ स्त्री के हक़ में कविताएं

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तुम्हारी कमीज से
जब करीब आयी मेरी नाक
पसीने की गंध से भर गए नथुने
पर चूम कर हीं लौटा
तेरा पसनाया हुआ
वो गर्दन का तिल

जानता हूँ
इस एक बेडरूम,
हौल और किचेन की परिधि के भीतर
दिन भर न जाने कितने होते होंगे काम

***
बारिशें आती हों
और पृथ्वी भींगने के लिए
खड़ी हो जाती हो
घूमना छोड़ कर

तुम्हें जब कभी देखा है एक टक
मिट्टी महकी है
तेरी सोंधी-सोंधी सी

इतनी बारिशें हुईं
पर उसे गलते नहीं देखा

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