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Saturday, June 12, 2010

बंजर होने के ठीक पहले

चूहे दौड़ते थे
उनके पीछे कुछ और चूहे दौड़ते थे
और उनके पीछे कुछ और

उनकी दौड़ पेट तक हीं सीमित नहीं थी

वे दिमाग की नसों तक पहुँच चुके थे
और पूरे वक़्त
दौड़-दौड़ कर उँगलियों से
वासनाएं खुजाने में लगे रहते थे

वे अलग-अलग कई बिल बनाते थे
और नए इजाद किये तरीकों से खाते थे
और खाने के लिए
किसी भी हद तक जाते थे

ये बात सिर्फ चूहों तक सीमित होती तो
कुछ किया जा सकता था
पर चूहों के ऊपर प्रचलित
सारी कहावतें
अब आदमी के ऊपर
आराम से इस्तेमाल होती थीं


किसी पुरानी किताब के अनुसार

अच्छा वक़्त
गैर नवीकरणीय ऊर्जा की भांति था
इस युग को होश आने से पहले हीं

जिसका क्षय हो जाना तय था

बची हुई पीढ़ी की मस्तिष्कों में
भूख स्थायी रूप से काबिज हो चुका था

कुछ समाजशास्त्री
सारी वैज्ञानिक खोजों को
भुला दिए जाने के तरीके ढूंढ रहे थे

आत्माएं
बंजर होती जा रही थीं
और उनपे फिर से शरीर लगना
नामुमकिन सा था

संघर्षरत प्रकृति ने अपना आखरी आस भी
छोड़ दिया था

कवि अपनी देह में हाथ लगा चुका था
क्योंकि उसके पास
अब बेचने को कुछ नहीं बचा था

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