Tuesday, April 2, 2019

अभी ख्वाब के गहराने के दिन हैं !

मैंने छुए अल्फाज उसके
और उसने मेरी ख़ामोशी पे अपने हाथ रखे,
कभी पहले हुई कविता फिर कविता हुई


फिर वो मॉनसून हुई
और मैं बारिश,
सूखे गिले सारे गीले हुए


हंसी वाले उसके दो होंठ फिर खुल कर
चूमने लगे बादल
मुझे ठीक से पता नहीं कब बरसने लगी बूंदे,
धरती पर
टप-टप
हर तरफ हँसने की गीली तस्वीरें


जैसे हीं कविता फिर
विस्तार लेकर निराकार हुई
मैं उसमें गुम होकर आकार हुआ


जाने ये सब कितनी जल्दी हुआ
कि जरा सी देर में सब भर गया,
आँख भी, ख्वाब भी
और आँखों में अरसे से बने ख्वाब के घाव भी


अभी ख्वाब के गहराने के दिन हैं
उन्हें अभी और भरना है









2 comments:

संजय भास्‍कर said...

हर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें

संजय भास्‍कर said...

बहुत दिनो के बाद आपको लिखते देखकर खुशी हुई।