मुझे अपने देखे और सुने हुए से
यह भान है कि
मृत्यु एक नियम है
सभी नियमों में सबसे ज्यादा सच और शाश्वत
और उस नियम को जीवित रखने के लिए जन्म होता है
ऐसा जानते हुए भी
मैंने इस चक्र में शामिल किया तुम्हें
तुम्हारे जन्म के लिए बना जिम्मेवार
पर अगर तुम्हें जन्मना हीं था
तो अच्छा है जन्मना मेरे माध्यम से
क्यूंकि तुम बेटियां हो
और मैं अन्य पिताओं के बारे में
दावे के साथ
नहीं कह सकता
कि वे भी मेरी तरह अहोभाव से स्वीकार करते तुम्हे
मैंने सुना है कि
नचिकेता खुद चल कर जब
म्रत्यु के द्वार पे पहुंचा
तो तीन दिन इन्तिज़ार करना पड़ा उसे
और मृत्यु इसी तरह अक्सर डर कर छिप जाती है
जब कोई सामने हो लेता है उसके
पर मेरी बेटियों
जीवन ऐसा नहीं है
वो जन्मते हीं सामने आ जाता है
आँख दिखाने लगता है
तुम आयी
एक सनातन दुःख तुम्हारी मुठ्ठी में रख कर
भेजा गया तुम्हें
तुम्हारी माँ ने कोसा अपने नसीब को
उसे थाली पीटे जाने की वजह का हिस्सा होना था
तुम्हारी दादी ने
आस-पड़ोस की स्त्रियों से साझा किया
दो पोतियों के एक साथ होने का दुःख
तुम्हारे दादा ने कहा-
'कोई चिंता की बात नहीं है'
वे शायद अपनी चिंता भुलाने में थे
तुम्हारे नाना ने कहा-
'जब दो का पता था तो
कुछ सावधानी बरतनी चाहिए थी,
मैंने तो सोंचा था कि आप जांच करा चुके हैं '
और तुम्हारी नानी ने कहा-
'कोई बात नहीं, अभी बहुत जिंदगी बाकी है'
बहुत सारे लोगों ने कहा क़ि
'दोनों एक-एक हो जाते तो काम ख़त्म हो जाता'
और बहुत सारे लोग चुप रहे
मिठाइयों और पार्टियों पे ज्यादा बात नहीं हुई
मैं बैठा सोंच रहा हूँ
संवेदनाओं की इस कठोर म्रत्यु के बारे में
जिसका
इस तीक्ष्णता से भान
मुझे अभी-अभी हो रहा है
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21 comments:
रुला ही दिया भाई... !!!
वैसे उधर सब ठीक ? उम्मीद करता हूँ इधर से कोई सरोकार नहीं होगा ..
बहुत ही गहन भावों को उतारा है आपने अपनी कलम से ...अंतिम पंक्तियों में ...।
मन ही मन में कितनी बार मार चुके हैं न लोग ?
हमेशा की तरह परफेक्ट और मावर्लेस।
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मोबाइल चार्ज करने के लाजवाब ट्रिक्स।
एग्रीगेटर: यानी एक आंख से देखने वाला।
मुझे समझ में नहीं आ रहा क्या कहूँ .आपकी कविता लगभग हर घर में सुनाई पड़ती है.
जाने कब बदलेगी मानसिकता.
मुद्द्तो की तेरे
रुह का इंतजार
तेरे एक छुअन से
भर गई आंखे प्यासी !!!!
मृत्यु का चिन्तन एक भय लाता है, उसके परे ही जीवन का सत्य है।
सच में रुला दिया, जो कड़वा है, पर फिर भी सच है, वह कहकर... मृत्यु की अवश्यम्भाविता के बीच जीवन के लिए जूझती बेटियाँ.
एक कडवा सच बेहद सधे हुये लफ़्ज़ो मे उकेरा है…………शानदार प्रस्तुति।
Uf! Kitni wyatha bhari padee hai!
मैंने सुना है कि
नचिकेता खुद चल कर जब
म्रत्यु के द्वार पे पहुंचा
तो तीन दिन इन्तिज़ार करना पड़ा उसे
और मृत्यु इसी तरह अक्सर डर कर छिप जाती है
जब कोई सामने हो लेता है उसके
पर मेरी बेटियों
जीवन ऐसा नहीं है
वो जन्मते हीं सामने आ जाता है
आँख दिखाने लगता है
भावपूर्ण रचना...
मैं बैठा सोंच रहा हूँ
संवेदनाओं की इस कठोर म्रत्यु के बारे में
जिसका
इस तीक्ष्णता से भान
मुझे अभी-अभी हो रहा .
समाज और परिवार की सोच का खाका खींच दिया है ..बहुत विचारणीय रचना .
अच्छी रचना है भाई ।
बडी होती नासूरो मे
यह दर्द है तेरी
पर तू है किधर
जब तेरे होने का
मातम मनाती और
कोसती है खुद को
गर तुझे अपने दर्द का एहसास है
तो दर्द को तोड
निकल जकडनो से
बना अपने पैरो को
अनगद की जंघा
जिसे रावण के पूत भी
ना हीला पाये थे
दे तू उन सपूतो को
एक सबक जो
माँ के आँचल तले
बेटियो की माँओ से
रस्मो-रिवाज़ो के नाम पर
गंदा खेल खेलते है
कारण बनते है
मरती संवेदनाओ की !!!
ओर रुदालिया ....वे भी विलुप्त है इस युग में !!!!
बहुत ही मर्मस्पर्शी और भावनात्मक शब्दों में आपने आधुनिक कहे जाने वाले समाज के दोगुलेपन का वर्णन किया है| इसकी तारीफ नहीं कर सकता क्योंकि तारीफ़ के लिए मन खुश होना चाहिए किन्तु कविता के साथ मन के भाव किसी अन्य ही दिशा में चले जाते है!
संवेदनाओं की मृत्यु...
जीवन का सच ... सब कितना कठोर!
कोमल पितृहृदय ने आस जगाई!
संवेदनशील यथार्थपरक अभिव्यक्ति!
मैं बैठा सोंच रहा हूँ
संवेदनाओं की इस कठोर म्रत्यु के बारे में
जिसका
इस तीक्ष्णता से भान
मुझे अभी-अभी हो रहा है
बहुत कटु सत्य..बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति, दिल को छू लेती है.
मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.
कविता भीतर तक कंपकंपाती है !
बधाई!!...और मिठाई??
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