Tuesday, November 2, 2010

जहाँ प्यार और पोलीथिन एक साथ संड़ते हैं

अभी कुछ देर पहले हीं
मैं जलती आँखों के साथ
नींद की एक लोकल ट्रेन में चढ़ा हूँ
और थोड़ी देर बाद हीं

मेरी नींद को
एक सपने पे उतर जाना है

जहां मेरी नींद अक्सर उतरती है
उस सपने से सटी एक जगह है
जहाँ मुझे अपना आशियाना बनाना था
जिसे मैं कभी प्यार के
और कभी होम लोन के अभाव में
अभी तक नहीं बना पाया
और मालुम नहीं कब तक ऐसा रहेगा

दरअसल
ये शहर कभी एक दलदल है
जहाँ भारी मात्रा में
प्यार और पोलीथिन एक साथ संड़ते हैं
और जहाँ घर की नींव नहीं बन पाती
और कभी एक बाजार है
जहाँ आदमी की धारिता आंकने की प्रक्रिया
लगातार चलती रहती है
ताकि उसे कर्ज दिए जा सकें

इस शहर का दिया हुआ एक डर है
जो मुझमें खुलेआम घूमता है
वो लौट कर जाने के लिए एक घर के ना होने का डर है
और कभी लौट कर न जा पाने का डर है
खुलेआम घुमते हुए यह डर मुझे कभी भी पकड़ लेता है
और लगभग हर रात
मेरी नींद डर कर उस सपने पे उतर जाती है
जिससे सटी वो जगह है


पर इससे भी बड़ा एक और डर है
कि किसी रात जब मैं
नींद की लोकल ट्रेन से जब सपने पे उतरने को होऊं तो
वहां कोई छिन्न-भिन्न पड़ा हो
और उसके बाद मुझे मालुम नहीं
कि मेरी नींद कहाँ जाया करेगी

__________

21 comments:

shikha varshney said...

आप कविता के माध्यम से इतने गहरे जिंदगी के आयामों पर उतर जाते हैं कि पाठक आश्चर्य से ठगा सा खड़ा रह जाता है ...

vandana gupta said...

स्तब्ध हूँ …………कहाँ से कहाँ ले जाते हैं और सोचने को मजबूर कर देते हैं……………बेहद गहन अभिव्यक्ति।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

ओम भाई, आपकी कल्‍पना, आपके बिम्‍ब आपकी व्‍यंजना सब कुछ अद्भुत होती है।

महेन्‍द्र वर्मा said...

गहन अर्थों वाली एक अनुपम रचना।...बधाई।

sonal said...

kitne gehre tak choo gaye honge bhaav aur drashya tab bani hgi ye rachnaa
badhaai

Archana Chaoji said...

आपकी रचना पर कुछ कहते भी नहीं बनता
और कहना भी बहुत कुछ रहता है
और मालूम नहीं कब तक ऐसा रहेगा...
और मेरी नींद कहाँ जाया करेगी...

सदा said...

और मालूम नहीं कब तक ऐसा रहेगा...
और मेरी नींद कहाँ जाया करेगी...

बहुत ही भावमय प्रस्‍तुति ।

उस्ताद जी said...

7.5/10

उत्कृष्ट लेखन / जबरदस्त कविता
आपकी यह कविता अकेले पाठक को बहुत अकेला छोड़ जाती है. संज्ञा-शुन्य सी स्थिति बन जाती है. यह कविता बहुत विस्तृत व्याख्या करा सकती है.

ashish said...

आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ , कमेन्ट के लिए शब्दों की कमी से जूझ रहा हूँ , बस यही कहना था की "जहा ना पहुचे रवि वहाँ पहुचे कवि" . उत्कृष्ट रचना

ZEAL said...

.

उम्दा रचना -बधाई।

.

kshama said...

Uf! Dil me ek tees-see uth gayee....behad gahre bhaav hain...raungate khade kar diye!

फ़िरदौस ख़ान said...

बेहद उम्दा रचना...

mukti said...

आपकी कविता के बिम्ब अद्भुत होते हैं. सच में हमलोग तो कुछ कह ही नहीं सकते.
पर एक जगह कुछ अटपटा लग रहा है--

"जिसे मैंने कभी प्यार के
और कभी होम लोन के अभाव में
अभी तक नहीं बना पाया"

यहाँ शायद 'मैंने' के स्थान पर 'मैं' होना चाहिए था.

प्रवीण पाण्डेय said...

और दोनों ही मिट्टी में नहीं मिल पाते हैं, यहाँ की मिट्टी अब ऐसी नहीं है।

ओम आर्य said...

मुक्ति जी, धन्यवाद...
गलती सुधार दी गयी है.

Archana Chaoji said...

कॄपया "सटे एक जगह" को भी "सटी एक जगह " कर लें....

Meenu Khare said...

आवाक हूँ एक बार फिर.

संजय भास्‍कर said...

.......जबरदस्त कविता
आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं ...

संध्या आर्य said...

देखा था उसे
जब पहली बार
सिर्फ पैरो के जुतो तक
आंखो के गहराई मे उतरने की
हिम्मत साथ न थी

सबकुछ जान गयी थी
उसके बारे मे
जितना कुछ अनकहा था
उतना ही आज भी जानती थी

नैसर्गिक लम्हे सिर्फ
महसूस लेने से
गहरे बांध दी थी
और साथ
जो सदियो का था

यह मेरे अनकही बातो की एक घटना है
जो सत्य है और मौत जैसी है
जो धंस गई थी
मेरे जन्म के समय
मेरी नन्ही उंगलियो से

रौशनी पर बहते हुये आज
वक्त के उजले पंखो की गति मे
तेरे एहसास
सुबह सवेरे के आसमान पर
बिखरे इंद्रधनुष से लगते है
जो सूरज के आंखे खोलने से बनते है !

Deepak chaubey said...

बहुत बढिया ,दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें

Kavita Prasad said...

Kaafi sare jazbaat(sapne, zindaki ka anubhav, vyang, parivaar, samaaj aur sachaayi) bhi, apki kavita ko bhatakne nahi dete...