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Thursday, April 8, 2010

जरूरतें, विश्वास और सपना


जब तुम घोंप आये
उसकी पीठ में छुरा
मैंने देखा
उसके खून में पानी बहुत था

जिन मामूली जरूरतों को लेकर
तुम घोंप आये छुरा
उन्ही जरूरतों ने
कर दिया था उसका खून पानी

**
तुम बार-बार खोओगे
विश्वास
कहीं सुरक्षित रख के

वे इधर-उधर हो जाते हैं
रोजमर्रा की
कुछेक जरूरी चीजों के हेर-फेर में

***
बहुत तेजी से
बदल रही हैं कुछ जरूरतें
सपनो में

जैसे घर एक जरूरत था पहले
पर अब एक सपना है

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वक्त भाग कर
जल्दी-जल्दी दिन गुजारता है
जब उसे
इक रात की जरूरत होती है

और रात
नींद की जरूरत में
वक़्त को सो कर गुजार देती है
*****