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Sunday, April 18, 2010

बढ़ते तापमान में गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब

इसमें कोई अतिरंजन या रोमांटिसिज्म नहीं है
जब मैं कह रहा हूँ
कि आजकल रोज जुड़ रहा है थोड़ा-थोड़ा प्यार
हमारे बीच
पहले से जमा होते प्यार में

रोज बढ़ रहा है प्यार
रोज खिल रहे हैं
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब हमारे बीच

बढ़ते प्यार के साथ
यह एक अलग सा अनुभव है मेरे लिए
जिसमें कुछ सपने रोज हो रहे हैं पूरे
और बन रहें हैं रोज कुछ नए

उगने से पकने तक की
प्रक्रिया पूरी करके
बहुत खुश हो रहे हैं सपने
खुश हो रहे हैं
हमारे बीच के
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब.

यहाँ तक तो सब खुशनुमा है
मगर इसके उलट दूसरी तरफ
चढ़ रहा है पारा
झुलस रहे हैं गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब
जल रहे हैं सपने
और तापमान का तैश बढ़ता हीं जा रहा है

तापमान का बढ़ना
प्यार के बढ़ने जैसा नहीं होता

बल्कि उसके विपरीत
बढ़ा देता है पृथ्वी पे पहले से बेकाबू हुईं असमानताएं
पिघला देता है ध्रुवों का भविष्य
खेतों में मिटटी से खेलने वाले बच्चों को
ठेल देता है कट्टे* की फैक्ट्रियों में

हम कब तक सोते रहेंगे वातानुकूलित कमरों में
काटते रहेंगे पेंड
बर्बाद करेंगे पानी
बंजर करते रहेंगे खेत
कब तक देते रहेंगे चढ़ते पारे का साथ
और बढाते रहेंगे कट्टों की फैक्ट्रियां

*कट्टा = देशी पिस्तौल
[यह कविता 'हिंद युग्म' पर प्रकाशित/पुरस्कृत है. आप में से कई मित्रगण ये कविता पहले हीं पढ़ चुके हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे चुके हैं. पर कुछ अन्य मित्रगण शायद न देख पाए हों, उनके लिए विशेष रूप से फ़िर से प्रस्तुत किया है कुछ परिवर्तनों के साथ . ]