वे कहीं से भी आए हो
या फिर कहीं से भी नहीं आए हो
(क्योंकि उनमें से कई अब कहीं के नहीं है)
वे यहीं हैं अपने संघर्ष, अपनी लड़ाई के मोर्चे पर
अपनी पसलियां ताने
हर एक के पीछे वे दस हजार में हैं
वे अपना
छोटा बड़ा जितना भी है घर और अनाज
पीठ पर लाद कर ले आए हैं
और बैठ गए हैं सड़क पर
सड़क जो कहीं भी जाती हुई दिखाई नहीं देती
वे जाड़े की ठिठुरती रात में
सड़क पर खड़े तंबूओं में बल्ली लगे हैं
वे गेहूं की बोरियां हैं, जलावन की लकड़ियां हैं
बेलती और फुलाती हुई रोटियां भी
सुबह सुबह की चाय की घूंट के साथ गले तक पहुंचने वाली गरमाई भी हैं
ट्रॉली के टायर और उसमें भरी हुई हवा भी हैं वे
वे वहां वैसे हैं जहां जैसी जरूरत है
मगर वे हैं वहीं आंदोलन के गीत में बजते हुए
अपने अखबार की रोशनाई में छपते हुए
वे इतने हजार तरह के माइनस में हैं
कि माइनस में गया पारा भी
अब उनकी हड्डियों को, उनके जज्बे और हौसले को छूने से पहले एक बार सोचता है
हुकूमत मगर फिर भी जिसे गला देना चाहती है
उन्हें आत्महत्याओं के आंकड़ों में मत देखिए
वहां वे सिर्फ इसलिए रखे गए हैं
क्योंकि सरकार को पता है
कि उनकी हत्याओं की तहकीकात में
किसका नाम आएगा
वे बार-बार निकल कर आते हैं
आंकड़ों से बाहर सड़कों पर और पूछते हैं
कि हत्यारा कौन है
हत्यारा कहता है कि वो अब और हत्या नहीं होने देगा
वे कह रहे हैं कि वे वहीं हैं
और उनका वहीं होना माना जाए
तब भी
जब वे चले गए होंगे
रोपाई कटाई के लिए अपने खेतों में
क्योंकि सड़क पर आंदोलन जोतना
और मांगे रोपना
अब फसल उगाने के तरीके में शामिल कर लिया गया है
अगली बार वे जब आएंगे
तो अपना छोटा बड़ा जितना भी है खेत
सड़क पर ले आएंगे
और वहीं लहलहाएंगे और लहराएंगे आंदोलन!
© Om Arya