Friday, January 23, 2009

बिना माटी

यहाँ से
सात योजन दूर
मेरी कोई मिट्टी रहती है
और मैं
सात योजन दूर
बिना मिट्टी के रहता हूँ

सात बरस हुए
सात लंबे बरस
सात जाड़े, सात गर्मी और सात बारिश
सात होली-दीवाली
सात रोपाई, बुआई और कटायी
सरसो के फूलने और आम के मांजराने के मौसम सात,
सात मौसम बारातों के
और भी कई तीज-त्योहार,
सब सात-सात की गिनती में

निकल गये आँख से इन सात बरसों में

सात बरस
अपनी मिट्टी, हवा, पानी
और डोर से कट कर
सोंचता हूँ अब, तो
अपना हीं गाँव
सात योजन दूर लगता है

अब जाऊँ भी तो
कहाँ पहचान पाएगी
वो अन्हरमन वाली दाइ (दादी)
या भगवानपुर वाली काकी
शायद माई भी धोका खा जाए
एक बार तो

आखिर इन बरसो में
वो बदन भी तो उतर गया है
और उस बदन के साथ पहचान भी

अबएक तरफ वो गाँव हैं
जहाँ की हवा
कट गयी है मुझसे
और दूसरी तरफ
ये शहर
जहाँ अपना वजन उठाए उठाए
काँधे सूज गये हैं मेरे.

और बीच में मैं
जो सात योजन दूर
बिना मिट्टी के रहता हूँ.

2 comments:

Udan Tashtari said...

हर प्रवासी की पीड़ा बयान करती बेहतरीन रचना. बधाई.

कंचन सिंह चौहान said...

अबएक तरफ वो गाँव हैं
जहाँ की हवा
कट गयी है मुझसे
और दूसरी तरफ
ये शहर
जहाँ अपना वजन उठाए उठाए
काँधे सूज गये हैं मेरे.

bahut hi samvedansheel