शहर तीव्र है
इसके भागने की तरह-तरह की आवाजें हैं
कान के नीचे से सन्न से गुजर जाती है गाड़ियां
अंदाजा लगाते-लगाते कुछ वक्त लगता है
कि गुजरा कौन है
डर के आगे जाकर जीने की जरूरत है
ऐसा प्रचार किया जा रहा है
और कहा जा रहा है कि
इसके लिए पानी पीना काफी नहीं है
शहर बड़ा है
इसके लीलते जाने की प्रक्रिया का
अब कोई ओर-छोर नहीं
जमीन कम पड़ जाए तो
आसमान में हाथ लगा देता है तुरत
वे लोग जो प्रचार कर रहे हैं
ऐसा भी कहते हैं कि
विकास के लिए शहरीकरण जरूरी है
और कई उदाहरण भी बताते हैं
अगर आइन्स्टाइन की माने तो
शहर जितना बड़ा होगा
वहां आदमी उतना हीं ठिगना
पर फिर भी लगातार
शहरों को और बड़ा किया जा रहा है
शायद विकास के लिए छोटे आदमी चाहिए होते होंगे
दरअसल रेलगाड़ियों के डब्बों में लद कर
बड़े शहर के किसी स्टेशन पे
जो उतरते हैं चुचाप और
बिला जाते है
शहर की किसी छोटी संकरी गली-कुचों में
और अगले दिन से हीं
जिनका कोई नामों-निशान नहीं होता
उनके ठिगने होते जाने की क्या प्रक्रिया है
यह कविता उसी तलाश में यहाँ तक आयी है
पर कवि इसका हाथ छोड़ कर
अभी कहीं किसी गली के मोड़ पे चला गया है
जहाँ एक मासूम दुःख को रोंद कर
बड़े दुःख में तब्दील कर दिया गया है
और गली के कोने पे सड़ने के लिए छोड़ दिया गया है
जहाँ मक्खियाँ भिनभिनाती हैं
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Thursday, April 28, 2011
Monday, April 25, 2011
उसके बरसने तक
वह बिस्तर के दूसरी तरफ बैठी है
मैं लेटा हुआ हूँ
वह कई बार आयी है
और इसी तरह बैठ कर गयी है बिस्तर के कोने पे
मैंने लेटे-लेटे कई बार बुलाया है उसे
घर की आवाजें बहुत देर खड़ी रह कर थक गयी है
और अब बैठी है
रौशनी गला दबा कर बीच-बीच में चीखती है
काफी देर हो गयी है
हम एक-दूसरे को पहचान नहीं पाते
बाहर आसमान में रात से हीं घने हो रहे हैं बादल
मैं जानता हूँ
उसे आते-आते देर हो जायेगी
और तब तक बारिश को हो जाना है
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मैं लेटा हुआ हूँ
वह कई बार आयी है
और इसी तरह बैठ कर गयी है बिस्तर के कोने पे
मैंने लेटे-लेटे कई बार बुलाया है उसे
घर की आवाजें बहुत देर खड़ी रह कर थक गयी है
और अब बैठी है
रौशनी गला दबा कर बीच-बीच में चीखती है
काफी देर हो गयी है
हम एक-दूसरे को पहचान नहीं पाते
बाहर आसमान में रात से हीं घने हो रहे हैं बादल
मैं जानता हूँ
उसे आते-आते देर हो जायेगी
और तब तक बारिश को हो जाना है
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Friday, April 22, 2011
मुझमें प्रेम नहीं अब!
1.
हम सब
या फिर हम सब में से ज्यादातर
बड़े हुए
और फिर बूढ़े
और मर गए एक दिन
बेमतलब
और बुद्ध और कबीर के कहे पे
पानी फेर दिया
2.
प्रकृति ने भूलवश रच दी मृत्यु
और जन्म उस भूल के एवज में रचना पड़ा उसे
मृत्यु भी
झूठ लगती है अब
सभी हैं जीने को अभिशप्त !
3.
जब तक मैं शामिल नहीं हूँ
तब तक मुझे आस है
कि कुछ और लोग भी नहीं होंगे
उस बुरे कृत्य में शामिल
भले हीं दिखाई न पड़ें वे
4.
जितनी मोची पाता है
फटे जूते की मरम्मत कर के
या फिर कुम्हार घड़े बना के उठा लेता है सुख
उतना भी नहीं हासिल है मुझे
तुम्हें लिख के
कविता
मुझमें प्रेम नहीं अब!
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हम सब
या फिर हम सब में से ज्यादातर
बड़े हुए
और फिर बूढ़े
और मर गए एक दिन
बेमतलब
और बुद्ध और कबीर के कहे पे
पानी फेर दिया
2.
प्रकृति ने भूलवश रच दी मृत्यु
और जन्म उस भूल के एवज में रचना पड़ा उसे
मृत्यु भी
झूठ लगती है अब
सभी हैं जीने को अभिशप्त !
3.
जब तक मैं शामिल नहीं हूँ
तब तक मुझे आस है
कि कुछ और लोग भी नहीं होंगे
उस बुरे कृत्य में शामिल
भले हीं दिखाई न पड़ें वे
4.
जितनी मोची पाता है
फटे जूते की मरम्मत कर के
या फिर कुम्हार घड़े बना के उठा लेता है सुख
उतना भी नहीं हासिल है मुझे
तुम्हें लिख के
कविता
मुझमें प्रेम नहीं अब!
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