Showing posts with label मेरी पुरानी कवितायें. Show all posts
Showing posts with label मेरी पुरानी कवितायें. Show all posts

Tuesday, March 24, 2009

विस्थापित स्वर!

कुछ स्वर,

जो लब्जों के पनाह में

जगह नही पाते

उन खामोश स्वरों की रूहें

सदियों तक, इंतिज़ार करती हैं

कि शायद कभी कोई आवाज़,

कोई लब्ज आकर ,

उसे अपना जिस्म पहना दे

और उन कानों तक पहुँचा दे

जिनके लिए

उन्हे मौन में हीं छोड़ दिया गया था।


स्वर मरते नही,

वे कहीं छूट जाते हैं

मौन और लब्ज के बीच भटकते हुए।


वे दिखाई भी नही पड़ते

कि उन्हे कोई शब्द दिए जा सकें

पर वे रहते हैं

अपने वजूद में जिंदा।


अभी भी होंगें कई

हमारे आस पास,

फ़िज़ा में भटकते हुए


इसलिए किसी भी स्वर को बे-आवाज़ मत छोड़िए


आइए

हम मिल कर उन बेअवाज़ स्वरों को

पहचानने का कोई तरीका ढूँढें

और उन्हें आवाज़ देने की कोशिश करें


वे हमारे द्वारा हीं विस्थापित किए गये स्वर हैं.

Saturday, March 14, 2009

लापता लोग

(घुघूती बासूती जी को पढ़ के अभी मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आ गई)

अखबार में छपी है,
फोटो के साथ दी हुई है
लापता होने की ख़बर।

ये लापता लोग
जिनकी कोई ख़बर नही है इनके परिजनों को ,
सिर्फ़ ये लोग हीं लापता नही है

लापता लोगो की कई और श्रेणियां हैं ...

लापता वे लोग भी हैं,
जिनके सारे परिजन
किसी आतंकवाद के शिकार हो गए
और वे लोग भी जिन्हें
उनकी मांएं, किन्ही परिस्थितियों में
कहीं रोता हुआ छोड़ आयीं
और वे लोग भी
जो ओल्ड-एज होम में रहते हैं,
इसी तरह के कई और भी लोग लापता हैं
इस दुनिया में


असलियत में
लापता लोगों की ख़बर
किसी अखबार या टेलीविजन पे नही आती
दरअसल, लापता वे लोग होते हैं
जिनको अपना कहने वाला
इस दुनिया में कोई नही होता

Friday, March 13, 2009

दरकी हुई दुनिया

दुनिया,
किसी किनारे पे खत्म नही होती
ऐसा कहते हैं खोज के परिणाम।

मैं ज्यादा दूर गया नही हूँ
अभी किनारे की ओर
पर कहाँ जाया जाता है मुझे नही पता
जब दुनिया बीच में हीं खत्म हो जाती है
ना हीं किसी खोज के परिणाम कहते हैं

तब जब दुनिया बीच में हीं दरक जाती है
पृथ्वी अपनी धूरी पे नही घूमती
दुनिया में मौसम नही बदलते
पतझर अटका हुआ रहता है शाखों पे,
चाँद उगता नही और अँधेरा डूबता नही
तब कहाँ जाया जाता है मुझे नही पता

तुम्हारे जाने के बाद डालियों पे,
हरे पत्ते नही लौटे अब तक
तो क्या हुआ गर मेरी सांस चलती है
और उंगलियों में कलम पकड़ लेता हूँ .

मुझ पे तो कील रख के ठोक दिया गया
वक़्त का सारा ख़ालीपन
और छोड़ दिया गया है
अपने बहते लहू के सहारे।

मैं जाता हूँ
उन दरारों में भी कभी कभी
जो मेरी दुनिया के
अचानक दरकने से बनी है
और ढूँढता हूँ उस टूटी दुनिया के छोर को
जो खो गयी है
पर वो वहां नही मिलती

कभी कोई छोर मिल जाए गर तुम्हे
मेरी दरकी दुनिया के
तो gujaarish है
खींच लाना उसे मुझ तक।

मैं हाथो में शुकराना लिए तुम्हारा इंतिज़ार करूंगा।

Monday, March 9, 2009

मैं कृतज्ञ हूँ!

मैं कृतज्ञ हूँ

मैं कृतज्ञ हूँ
उस जीवन के प्रति
जो मुझमें और तमाम अन्य जीवों में
लगातार साँसें ले रहा है

मैं कृतज्ञ हूँ
उस सूरज के प्रति
जिसने ऊर्जा भेजने में
कभी कोई चूक नही की
और जिसके बिना
अकल्पनीय थी हमारी सर्जना

मैं कृतज्ञ हूँ
उस प्रकृति के प्रति
जिसने हवा, पानी, पेड़, बादल बिजली, बारिश, फूल
और खूशबू जैसी चीजें बनाई
और उन पे किसी का जोर नही रखा।

मैं कृतज्ञ हूँ
प्रत्येक सृजन
और उसके लिए मौजूद मिट्टी के प्रति

मैं आँसू, हंसी, शब्द, शोर और मौन जैसी
चीज़ो के प्रति भी कृतज्ञ हूँ
जो मेरी कविता का हिस्सा बनते हैं

और अन्त में
उन सब चीज़ो के प्रति
जो अस्तित्व में हैं
और जिनकी वजह से
दुनिया सुंदर बनी हुई है पर
जो यहाँ,
इस कविता में नही आ सके
जैसे स्त्री और बच्चे
मैं कृतज्ञ हूँ।

मैं कृतज्ञ हूँ सबके लिए !