Thursday, April 28, 2011

जहाँ मक्खियाँ भिनभिनाती हैं

शहर तीव्र है
इसके भागने की तरह-तरह की आवाजें हैं
कान के नीचे से सन्न से गुजर जाती है गाड़ियां
अंदाजा लगाते-लगाते कुछ वक्त लगता है
कि गुजरा कौन है

डर के आगे जाकर जीने की जरूरत है
ऐसा प्रचार किया जा रहा है
और कहा जा रहा है कि
इसके लिए पानी पीना काफी नहीं है

शहर बड़ा है
इसके लीलते जाने की प्रक्रिया का
अब कोई ओर-छोर नहीं
जमीन कम पड़ जाए तो
आसमान में हाथ लगा देता है तुरत

वे लोग जो प्रचार कर रहे हैं

ऐसा भी कहते हैं कि
विकास के लिए शहरीकरण जरूरी है
और कई उदाहरण भी बताते हैं

अगर आइन्स्टाइन की माने तो
शहर जितना बड़ा होगा
वहां आदमी उतना हीं ठिगना
पर फिर भी लगातार
शहरों को और बड़ा किया जा रहा है
शायद विकास के लिए छोटे आदमी चाहिए होते होंगे

दरअसल रेलगाड़ियों के डब्बों में लद कर
बड़े शहर के किसी स्टेशन पे

जो उतरते हैं चुचाप और
बिला जाते है
शहर की किसी छोटी संकरी गली-कुचों में
और अगले दिन से हीं
जिनका कोई नामों-निशान नहीं होता
उनके ठिगने होते जाने की क्या प्रक्रिया है


यह कविता उसी तलाश में यहाँ तक आयी है
पर कवि इसका हाथ छोड़ कर
अभी कहीं किसी गली के मोड़ पे चला गया है
जहाँ एक मासूम दुःख को रोंद कर
बड़े दुःख में तब्दील कर दिया गया है
और गली के कोने पे सड़ने के लिए छोड़ दिया गया है
जहाँ मक्खियाँ भिनभिनाती हैं

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9 comments:

shikha varshney said...

शहरों को बड़ा किया जा रहा है....
और फिर आखिरी पैरा ...
झकझोर कर रख देता है.

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

bhavpoorn prastuti OM bhaiya

Pawan Kumar said...

शहरों की सही हकीकत बयां की आपने......
उम्दा पोस्ट.

vandana gupta said...

बेहद सशक्त और गहन अभिव्यक्ति…………शहरी हालात का सार्थक चित्रण्।

डॉ .अनुराग said...

टुकडो में कविता बेहद खूबसूरत है ....जैसे शुरूआती ...फिर आइन्सटीन...

प्रवीण पाण्डेय said...

कविता संगिनी बनकर रहे।

Parul kanani said...

sundar prayog!

pallavi trivedi said...

bahut bahut umda... bilkul alag soch ke sath likhte ho.

M VERMA said...

करीब से परखे गये सच का बयान