वक़्त को बैठा मना रहा हूँ
कि वो फिर आने दे एहसास में
उन शामों को
उन शामों को
जहाँ कविता देर तक
बैठा करती थी यहाँ-वहां शाखों पे
पत्तियों पर और कभी लेट जाया करती थी
घास के मैंदान में
बैठा करती थी यहाँ-वहां शाखों पे
पत्तियों पर और कभी लेट जाया करती थी
घास के मैंदान में
ऐसे क्यूँ रूठे कि
कविता को दो गज जमीन भी नहीं
जहाँ अलफ़ाज़ बैठ सके
पैर फैला के
पहले रौशनदान से झाँक भी जाते थे गर बादल
तो शामें खींच कर उन्हें
बारिश कर दिया करती थीं
जैसे एक सिरा धागे का पकड़ आ जाए
तो पूरी पतंग खींच लाया करते हैं बच्चे
अब खिडकियों से लग कर
बैठा रहता हूँ
सारा सारा दिन
पर कहीं से कोई अल्फाज नहीं गुजरता
सारा सारा दिन
पर कहीं से कोई अल्फाज नहीं गुजरता
वक्त से यह मान-मनुहार
सिर्फ इसलिए
सिर्फ इसलिए
क्यूंकि कविता के सिवा
कोई दूसरा तरीका नहीं होता
कोई दूसरा तरीका नहीं होता
तुम्हें देखने का!
11 comments:
न कोई खींचता है मांजे न कोई उड़ाने वाला है पतंगों को"
"ना कोई खेलने वाला है बाजी और ना ही कोई चाल ही चलता है " --- गुलज़ार (रेनकोट)
http://www.youtube.com/watch?v=IIcG70WJkS4
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वैसे अब किधर रहने का इरादा है ?
वाह !! क्या बात है!!! बेहतरीन भाव संयोजन
कपाट खोलिए जनाब ! वह शाम का टुकड़ा इंतजार कर रहा है ..
बहुत खूब
रूठे एहसासों से भी कविता निकल ही आई ...
कपाट खोल कर झांक लेती है कविता !
कविताएं मेरी मुझसे ..मौन होकर ही करती है बात ...
अब खिडकियों से लग कर
सारा सारा दिन बैठी रहती हैं कवितायें
मगर न कोई खींचता है मांजे
न कोई उड़ाने वाला है पतंगों को
Bahut sundar!
कवितायें अपने प्रतीक ढूढ़ने में लगी है..खिड़कियों से झाँकती..
अब खिडकियों से लग कर
सारा सारा दिन बैठी रहती हैं कवितायें
मगर न कोई खींचता है मांजे
न कोई उड़ाने वाला है पतंगों को
वाह सुंदर
खिड़की खुलने के इंतज़ार में बैठी कविता ने रास्ता ढूंढ़ ही लिया आखिर :)
सुन्दर!
वाह! बहुत खूब...
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