Friday, March 2, 2012

कोई दूसरा तरीका नहीं

वक़्त को बैठा मना रहा हूँ
कि वो फिर आने दे एहसास में
उन शामों को 
जहाँ कविता देर तक
बैठा करती थी यहाँ-वहां शाखों पे
पत्तियों पर और कभी लेट जाया करती थी
घास के मैंदान में

ऐसे क्यूँ रूठे कि
कविता को दो गज जमीन भी नहीं
जहाँ अलफ़ाज़ बैठ सके
पैर फैला के

पहले रौशनदान से झाँक भी जाते थे गर बादल
तो शामें  खींच कर उन्हें
बारिश कर दिया करती थीं
जैसे एक सिरा धागे का पकड़ आ जाए
तो पूरी पतंग खींच लाया करते हैं बच्चे

अब खिडकियों से लग कर
बैठा रहता हूँ
सारा सारा दिन
पर कहीं से कोई अल्फाज नहीं गुजरता

वक्त से यह मान-मनुहार
सिर्फ इसलिए
क्यूंकि कविता के सिवा
कोई दूसरा तरीका नहीं होता
तुम्हें देखने का!

11 comments:

सागर said...

न कोई खींचता है मांजे न कोई उड़ाने वाला है पतंगों को"

"ना कोई खेलने वाला है बाजी और ना ही कोई चाल ही चलता है " --- गुलज़ार (रेनकोट)

http://www.youtube.com/watch?v=IIcG70WJkS4

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वैसे अब किधर रहने का इरादा है ?

Pallavi saxena said...

वाह !! क्या बात है!!! बेहतरीन भाव संयोजन

M VERMA said...

कपाट खोलिए जनाब ! वह शाम का टुकड़ा इंतजार कर रहा है ..
बहुत खूब

वाणी गीत said...

रूठे एहसासों से भी कविता निकल ही आई ...
कपाट खोल कर झांक लेती है कविता !

Archana Chaoji said...

कविताएं मेरी मुझसे ..मौन होकर ही करती है बात ...

kshama said...

अब खिडकियों से लग कर
सारा सारा दिन बैठी रहती हैं कवितायें
मगर न कोई खींचता है मांजे
न कोई उड़ाने वाला है पतंगों को
Bahut sundar!

प्रवीण पाण्डेय said...

कवितायें अपने प्रतीक ढूढ़ने में लगी है..खिड़कियों से झाँकती..

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

अब खिडकियों से लग कर
सारा सारा दिन बैठी रहती हैं कवितायें
मगर न कोई खींचता है मांजे
न कोई उड़ाने वाला है पतंगों को

वाह सुंदर

डिम्पल मल्होत्रा said...

खिड़की खुलने के इंतज़ार में बैठी कविता ने रास्ता ढूंढ़ ही लिया आखिर :)

Smart Indian said...

सुन्दर!

दीपिका रानी said...

वाह! बहुत खूब...