Wednesday, March 28, 2012

कौन किसके माथे ?

रोजमर्रा की भागदौड़ में गिरते गए
और दोष मढ़ते गए गड्ढों के माथे

पता ही नहीं चलता अब सपनो का
जरूरतें जागती हैं सारी रात नींद के माथे

रहने दिया आखिर में बिना कुछ कहे
देर तक मगर हथेली रही आवाज के माथे

अब ये कहना मुश्किल बहुत है
गोली कौन दागेगा किसके माथे

उस समंदर पे बोझ कितना गहरा होगा
पानी वो नदी छोड़ गयी जिसके माथे

हर शाम वो एक तन्हाई लगा जाता है
पार्क के कोने में पड़ी उस बेंच के माथे

पेंड वो अभी कुछ देर पहले उजड़ गया है
 कई सदी से लगा था वो इस जमीं के माथे

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सब किसी न किसी पर कुछ टिकाये हुये है, स्वयं हल्का होने के लिये।

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

sundar rachna om bhai

mridula pradhan said...

behad khoobsurat andaz......

sonal said...

स्तब्ध : नए बिम्ब समेटती रचना ....इंतज़ार का फल मीठा निकला

Pallavi saxena said...

एक अलग सी सोच की एक अलग सी रचना...

vikram7 said...

पता ही नहीं चलता अब सपनो का
जरूरतें जागती हैं सारी रात नींद के माथे
काफी अंतराल के बाद आप की रचना पढने को मिली ,हर बार की तरह कुछ सोचने को मजबूर करती बेहतरीन प्रस्तुति

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...
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