शाम के इस भूरे बदन से
आ-आकर टकरा रही हैं बार-बार
पूरी गति से,
कई तरह के रेतीले भावों से सनी।
मटियामेट कर रही हैं एक के बाद एक, सारी ख्वाहिशें
आज नही रुकेंगी ये लहरें ....
अभी से कुछ देर पहले हीं
वो पोत गया है
डूबते सूरज के चेहरे पे बहुत सारा मटमैला बादल
तोड़ कर बंधन,
छोड़ कर बरसों से थामा हुआ हाथ
वो चला गया है
टूटे रिश्ते की किरचियाँ सारी पानी में बह गई हैं
वो सारा बरसों से बदन पे जमा स्पर्श
रेत में तब्दील हो गया है
और ह्रदय की मुठ्ठी से फिसल रहा है
सब बह गया है,
टूट गया है, बिखर गया है एकबारगी
कांपते हाथों से
वो ढूंढ रही है कोई नज्म कि जिसकी पनाह में
अपने बिखरे शब्द डाल दे.
और मुक्त हो
मुक्त हो एक और रिश्ते से.
4 comments:
बहुत खूब, वाह...उम्दा भाव!!
bahut hi sundar bhav..........sachhcyi se jaise milwa deiya ho aapne.........padhkar aisa laga.
kaun se shabd ya line aisi nhi hai ki jise baar baar na padha jaye.........har line mein zindagi ko bakhan karti nazm hai.........bahut hi gahri.
कांपते हाथों से
वो ढूंढ रही है कोई नज्म कि जिसकी पनाह में
अपने बिखरे शब्द डाल दे.
और मुक्त हो
मुक्त हो एक और रिश्ते से.
वाह बहुत बढ़िया सुंदर लिखा है आपने
कांपते हाथों से
वो ढूंढ रही है कोई नज्म कि जिसकी पनाह में
अपने बिखरे शब्द डाल दे.
और मुक्त हो
मुक्त हो एक और रिश्ते से.
rishte se mukta hona dard ka sima par ho jana hota hoga shayad....
Post a Comment